Book Title: Sangrahani Sutram
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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संग्रहणीमुच्छिमचउपयभुअगुरग, गाउअधणुजोअणपुहत्तं ॥ २२७ ॥
वृत्तिः व्याख्या-पूर्वार्द्ध व्यक्तं, गुल्मी तु कर्णशृगाली त्रीन्द्रियविशेषः, तथा संमूछिमचतुष्पदा-गवादयः उत्क॥१०४॥
पतो गव्यतपृथक्त्वं, संमूछिमभुजगा-गोधानकुलादयो धनुःपृथक्त्वं, संमूछिमोरगा:-सर्पजातीया योजनपृथक्त्वम् ॥ २२७ ॥ तथा
गब्भचउप्पय छग्गाउआइं भुअगा उ गाउअपुहत्तं ।
जोअणसहस्समुरगा, मच्छा उभएवि अ सहस्सं ॥ २२८॥ व्याख्या-गर्भजचतुष्पदा-हस्त्यादयः षड्गव्यूतानि, गर्भजभुजगास्तु-गोधादयो गव्यूतपृथक्त्वं, गर्भजोरगाः-सर्पजातीया योजनसहस्रं, मत्स्या उभयेऽपीति गर्भजाः संमूर्छिमाश्च योजनसहस्रम् ॥ २२८ ॥ तथा
पक्खिदगधणपुहत्तं सवाणंगुलअसंखभाग लहू। | व्याख्या-पक्षिणां-गृध्रादीनां 'दुग'त्ति गर्भजानां संमूछिमानां च शरीरं धनुःपृथक्त्वं, सर्वमपि चैतदो-13 दघतो विशेषतश्च शरीरमानमुत्कृष्टं, लघु-जघन्यं पुनः शरीरं सर्वेषामप्येकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियरूपाणां तिरश्चामङ्गुल-|
स्यासंख्याततमो भागः, स चोपपातसमये बोद्धव्यः, तथा च मूलटीका-“एगिंदिआईणोगाहणा जहन्ना पुण सवे
॥१०४॥
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