Book Title: Sangrahani Sutram
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 233
________________ .COM- 4 उदय आहोश्चित प्राग्भवलेश्यान्त्यसमये उतान्यथेति संशयापनोदाथ भद्रबाहुखाम्याह-लेसाहिं सवाहिं. सममि परिणयाहिं तु । न हु कस्सइ उववाओ, परभवे होइ जीवस्स ॥१॥ लेसाहिं सवाहि, चरमे समयंमि। परिणयाहिं तु । न हु कस्सइ उववाओ, परे भवे होइ जीवस्स ॥२॥ अंतमुहुत्तमि गए, अंतमुहुत्तंमि सेसए चेव।। लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा वचंति परलोअं॥३॥ व्याख्या-लेश्याभिः-उक्तरूपाभिः, सर्वाभिरिति-पडिभरपि प्रथम समये तत्प्रतिपत्तिकालापेक्षया, परिणताभिः प्रस्तावादात्मरूपतामापन्नाभिः 'लक्षणे तृतीया' तुः पूरणे, नहु नैव कस्यापि जन्तोः परभवे उत्पत्तिर्भवति । तथा लेश्याभिः सर्वाभिरन्त्यसमये परिणताभिन कस्यापि परभवे उत्पत्तिः।। किं तर्हि ? अन्तर्मुहूर्ते गते एव-अतिक्रान्त एव, यदि वा अन्तर्मुहूर्ते शेषके चैवावतिष्ठमान एव लेश्याभिरुपलक्षिता है जीवाः परलोकं गच्छन्ति । केवलं तिर्यङ्नरा आगामिभवसम्बन्धिलेश्याया अन्तर्मुहर्तेऽतिक्रान्ते सुरनारकास्तु खभवसम्बन्धिलेश्याया अन्तर्मुहूर्ते शेषे सति परभवमासादयन्ति ॥ २३९ ॥ एतदेवाह तिरिनरआगामिभवल्लेसाए अइगए सुरा निरया । पुत्वभवलेससेसे, अंतमुहुत्ते मरणमिति ॥ २४० ॥ HEREOGRock Jain Education in Jhal For Privale & Personal use only Ww.ininelibrary.org

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