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हमारे जीवन की हर अभिव्यक्ति, भले ही वह श्रश्रद्धा हो या श्रद्धा, उसी परमात्मा की ही है । एक व्यक्ति परमात्मा को मानता है, दूसरा नहीं मानता । इस दुनिया में सत्तर फीसदी लोग ऐसे हैं जो नास्तिक कहलाते हैं और तीस फीसदी लोग प्रास्तिक हैं । इन आस्तिकों की आस्तिकता भी प्रायः सन्देह के घेरों में होती है । मुश्किल से दो प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो सच्चे अर्थों में प्रास्तिक कहला सकें ।
लोग मन्दिरों में जाते हैं । अपने आराध्य की प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना करते हैं और अपने आपको प्रास्तिक कहते हैं, लेकिन सच पूछा जाए तो बात दूसरी है । ये लोग प्रार्थना करने के बाद जब बाहर आते हैं तो हमेशा उनके मन में एक प्रश्न उठता है कि मैं जिसके सामने प्रार्थना कर रहा हूँ, वो आखिर है कौन ? परमात्मा की प्रतिमा के आगे उसकी प्रार्थना करेगा लेकिन भीतर यह संशय होगा कि वास्तव में तो यह पत्थर है, इसमें परमात्मा कहां है !
मनुष्य बाहर अमृत वचन सुनता है, लेकिन भीतर कुण्ठा है । बाहर चिन्तन है, लेकिन भीतर कोई न कोई समस्या घूम रही है । परमात्मा हमारा स्वभाव - सिद्ध अधिकार है । आप चाहे जिस रूप में परमात्मा के सामने पेश हो जाइए, लेकिन स्वभाव से अलग नहीं कर सकेंगे ।
परमात्मा को अपने
इसीलिए तो कहा जाता है - 'अप्पा सो परमप्पा' - 'आत्मा सो परमात्मा' – यानि तुम स्वयं परमात्मा हो । तुम्हारी सम्पदा तुम्हारे पास ही है । उपनिषद कहते हैं - 'तत्त्वमसि' - दुनिया में कहीं कोई है तो वह तुम स्वयं हो। हम जो कोई भी काम करेंगे उसकी प्रतिक्रिया तो होगी । यह धरती आत्म-समानता और
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