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उपयोग नहीं कर पाते । कल फिर कल की याद आती है। कल, कल हो जाता है।
एक बात तय है कल-कल करते रहे तो जीवन का यह झरना भी कल-कल धारा बनकर बह जाएगा । एक आदमी ने दीक्षा ले ली, संन्यासी हो गया। उसके एक मित्र ने उनसे कहा-'मेरी भी इच्छा हो रही है कि संन्यास ले लू।' उन्होंने कहा-'ले लो।' लेकिन वे सोचने लगे कि अभी तो काफी समय है । पहले पुत्र की शादी कर दू, पोते का मुंह देख लू, फिर संन्यास लूगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं । पोते का मुंह देख लिया तो प्रपौत्र की तमन्ना ने जन्म ले लिया । दरअसल आदमी दीक्षा लेना भी नहीं चाहता और दीक्षा लेने का प्रानन्द भी उठाना चाहता है ।
ऊपर से आदमी कहता है, गुरुजी ! चिंता मत करो, मैं पांच साल बाद आपकी छाया में आने वाला हूं। मैं जानता हूं, वो नहीं
आएगा। आने वाला, पांच साल इंतजार नहीं करता। मृत्यु के किनारे जाकर भी उसे नहीं सूझेगा कि संन्यास ले लू। लोग बातें ही करते रह जाते हैं। हमारी तमाम परेशानियों का कारण यही है कि हम बातें ही करते हैं उन पर अमल नहीं करते । आदमी का सत्यानाश भाग्य के कारण नहीं होता, उसके द्वारा किए जाने वाले कृत्य ही उसका सत्यानाश करते हैं ।
बातें कई तरह की होती हैं । बातों-ही-बातों में जिन्दगी पूरी की जा रही है। सांत्वना दी जा रही है। तुम सौ रुपए की लॉटरी खरीदो, लॉटरी वाला सांत्वना पुरस्कार में पेन, पेन्सिल पकड़ा देगा। सांत्वना पुरस्कार ऐसे हो गए हैं कि हम भी अपने जीवन को सांत्वना पर चलाने लगे हैं। सोचते हैं, कोई और मरेगा। हम तो जैसे अमर
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