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छोडू'। एक बटोरने में लगा है, दूसरा छोड़ने में । हालत यह है कि आदमी न तो बटोर कर कुछ पा रहा है और न ही छोड़कर । तुम सब कुछ छोड़ दोगे, लेकिन भीतर का गाली-गलौच वैसे-का-वैसा ही रहेगा। जबान तो वैसे ही आग और जहर उगलेगी। नाम भले ही शांतिनाथ रख लो या शीतलनाथ । अशांतिनाथ नाम रखकर अशांति फैलामो तो ठीक है, लेकिन शांतिनाथ नाम रखकर अशांति फैलाते हो, यह ठीक नहीं है । शीतलनाथ नाम रख कर क्रोध बरसाते हो, यह गलत है।
आदमी धन तो छोड़ देता है लेकिन मन से उसकी मालकियत की भावना नहीं जाती। बटोरना तो जारी रहता है । साधु-संत धन नहीं बटोरते, लेकिन अनुयायी बटोरते रहते हैं । वह अपने समुदाय को बढ़ाता है । बटोरना जारी रहेगा। चेले बनाएगा। जितना ज्यादा चेले, उतना ही संतोष । किसी व्यक्ति द्वारा करोड़ रुपए कमा लेने पर भी उसका मन नहीं भरता। यही हालत साधु की हो जाती है । चेलों की संख्या बढ़ने के बावजूद तृप्ति नहीं होती। दूसरों को उपलब्ध करवाने में जुटे हैं, लेकिन खुद ही उपलब्ध नहीं है। अनुयायी बटोरेंगे, बटोरने का यह भाव ही परिग्रह है। करोड़पति आदमी करोड़पति होकर भी उस रुपये के प्रति पकड़ नहीं रखता तो वो निश्चित रूप से अपरिग्रही है ।
घर में चार बर्तन होते हैं तो वे भी आपस में भिड़ेंगे, आदमी का भी ऐसा हाल है। एक आदमी के बारे में बताऊं, जो मुझे कहता है कि मैं जब से आपके सम्पर्क में आया हूं, मुझे लगता ही नहीं कि मैं घर में हूं और कोई खटपट हो रही है। मैंने घर में रहते हुए भी यह मान लिया कि मैं घर में नहीं हूं। ऐसा करने से अब कोई खटपट होती भी है तो मुझे सुनाई नहीं देती क्योंकि मैं घर
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