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कि वे अपनी दुकान जाते तो उन्हें लगता ही नहीं कि किसी ग्राहक से बात कर रहे हैं। वे इतने मस्त हो गए कि उन्हें अपनी दुकान ही मन्दिर लगने लगी। पहले उन्हें रात-रात भर नींद नहीं आती थी, लेकिन अब हालत यह है कि बिस्तर पर जाते ही आँख मुदने लगती है। उनके लिए अब दुकान भी मन्दिर जैसी हो गई है । व्यक्ति सही तौर पर तभी आध्यात्मिक और धार्मिक हो पाता है, जब उसे दुकान भी मन्दिर जैसी लगने लगती है।
जब ऐसा आदमी कपड़ा बुनता है तो वह कबीर की तरह चदरिया बीनना हो जाता है। झीनी-झीनी रे चदरिया, राम नाम रंग भीनी चदरिया । कबीर कहते हैं इस चदरिया का क्या मोल पूछते हो। यह तो मैंने अपने राम के लिए बुनी है। जो आदमी ग्राहक में भी राम को देखेगा, उसके लिए धरती पर, हरेक में राम नजर आ जाएगा। मन्दिर के भीतर जाकर तो हर कोई राम को निहार लेगा, लेकिन अस्पतालों में जाकर रोगियों में जो राम को स्वीकारेगा, उसके लिए सर्वत्र परमात्मा होगा।
अपने प्रशंसक के भीतर तो हर कोई आपको देख लेगा, लेकिन अपने पालोचक के भीतर अपने को देखने वाला अधिक महान होगा। प्रभु सब में है । फूलों में, पशु-पक्षियों में, प्रादमियों में, सब में प्रभु है । अणु-अणु, कण-कण में प्रभु है । पात-पात पर उसके हस्ताक्षर हैं, फूल की हर मुस्कान में उसकी ऋचा और पायत है, जरूरत तो उसे देखने भर की है ।
मनुष्य यह न सोचे कि मेरे भीतर प्रभु नहीं है। ऐसा सोचने से उसके भीतर लघुता की ग्रन्थि पैदा होगी। जब वह सोचेगा कि उसके भीतर भी प्रभु है तो वह विराटता की ओर चल सकेगा। कौन
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