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भोर रोज होती है। हमारी अांखें ही बंद हैं, इसलिए उन्हें नहीं देख पातीं। आंखें बंद हों, हृदय के द्वार न खुले हों तो उनमें रोशनी कैसे भरी जा सकती है। ऐसे में तो प्रात्मा हृदय के द्वार तक
आकर भी लौट जाएगी। जब तक परमात्मा को पहचानने की प्रांख नहीं है, तब तक ऐसा ही होता रहेगा ।
ऐसा नहीं है कि परमात्मा कोई सोने का मुकुट पहनकर हमारे सामने आएगा। परमात्मा कोई हीरों की चुनरी ओढ़ कर भी नहीं आने वाला। वह तो किसी भी रूप में आ सकता है। अब तक यही तो हुआ है। महावीर जब किसी के द्वार पर पहुंचे तो उन्हें परमात्मा के रूप कोई नहीं देख पाया। शायद लोगों ने उन्हें भिखारी ही समझा। महावीर को तो वही पहचान सकता है, वही परमात्मा को देख सकता है, जिसकी आंखों में चंदनबाला का नूर है ।
जब तक हमारे मन में चंदनबाला नहीं जन्मेगी, तब तक महावीर हमें कोई भिखारी, भिक्षु या जादूगर ही नजर आएंगे। महावीर के पास जाकर चंदनबाला और गौतम ने तो परमात्मा को देख लिया, लेकिन गौशालक ने तो महावीर में मात्र तेजो-लेश्या ही देखी। ऐसा नहीं है कि केवल भगवान कृष्ण में ही भगवत्ता हो । यदि मनुष्य के पास कृष्ण की भगवत्ता भरी आंखें हैं तो उन्हें सुदामा में भी वही परमात्मा दिखाई देगा।
हमारा अांचल विराट हो जाए, हृदय की प्रांख खुल जाए तो मीरां के पांव घुघरू बांधकर थिरक उठेगे । राजुल की प्रांखें गिरनार की ओर उठ जाएंगी। यह तो हमारी आंखों और हृदय पर निर्भर है। सब कुछ इस पर ही आधारित है।
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