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हुआ था ? नौकर ने कहा कि उसे नहीं बचा सका, वो तो आग में जल गया। इतना सुनना था कि सेठ अपने बाल नोचने लगा और विलाप करने लगा। माल तो बच गया, मगर मालिक खो गया । परिग्रह और कुछ नहीं है, दूसरे के माल को अपना समझना ही परिग्रह है। दूसरे पर मालकियत की भावना ही परिग्रह है।
लोग अपरिग्रह और परिग्रह का अर्थ 'छोड़ने' और 'बटोरने' से लगाते हैं। एक आदमी बहुत सारा परिग्रह रखकर भी अपरिग्रही हो सकता है और दूसरा सब कुछ त्याग कर भी परिग्रही हो सकता है । अगर यह कहो कि ये कपड़ा मेरा है तो एक कपड़ा रखकर भी परिग्रही हो जाओगे और लाखों की सम्पदा है, तुम कहते हो प्रभु का है, तो अपरिग्रही हो जाओगे। प्रभु का उपयोग चल रहा है । सब कुछ करने वाला वो है । ममत्व का, ममकार का भाव न होगा तो वो परिग्रही भी अपरिग्रही होगा ।
याज्ञवल्क्य ने इसीलिए तो जनक की परीक्षा ली थी, तो जनक ने अन्तिम शब्द में यही कहा था कि मिथिला जल रही है तो मेरा क्या जल रहा है। आप तो अपने अमृत वचन मुझे प्रदान करें । मिथिला को बचाने वाले और बहुत हैं। यहां तो मैं खुद जल रहा हूं। बाहर कोई प्राग ऐसी नहीं है जो अन्तस् को जला सके, वह तो भीतर जल रही है। इसे क्रोध और वासना की आग कह सकते हैं। हर व्यक्ति भीतर-ही-भीतर जल रहा है। मिर्ची ज्यादा खा ली तो उसकी जलन शांत करने के उपाय हैं । लेकिन जहां हमारी आत्मा और जीवन ही जल रहा है, वहां कोई दवा काम न आएगी। अग्निशामक कम्पनियां काम न आएगी।
अपरिग्रह को ठीक से समझना जरूरी है। मेरी समझ से तो अभी तक महावीर के अपरिग्रह को ठीक से समझा नहीं गया है ।
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