Book Title: Samajonnayak Krantikari Yugpurush Bramhachari Shitalprasad Author(s): Jyotiprasad Jain Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Parishad View full book textPage 9
________________ स्वयं लिखी है, तैयार है, और किन्हीं कारणोंवश वह प्रकाशित नहीं हो सकी- अतः यह सुनते ही उसके प्रकाशन के लिये वहीं पर मझे स्वयं ही अतः प्रेरणा हुई और प्रकाशन के कार्य का भी श्री गणेश हुआ। __इस शृंखला के बीच जो मझे अपना वक्तव्य प्रकाशित करना है, उसके लिये तो मेरे पास कुछ शब्द ही नहीं हैं / आदरणीय डा० सा० ने तो अपनी लेखनी द्वारा पू० ब्रह्म० जी की विद्वता, महानता और उनके सम्पूर्ण जीवन वृतान्त के संबंध में चार चांद लगा दिये हैं / फिर भी मैं अपने इस आख्यान में कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूं 'गुणा' सर्वत्र पूज्यते / जैसा कि भगवान महावीर ने कहा है कि "व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है" / बही कहावत पू० ब्रह्म. जी के त्यागमय, तास्वी जीवन को चरितार्थ करती हैं। - श्रध्देय पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी समाज सचेतक, समाज सुधारक, समाजोन्नायक, युग प्रवर्तक, क्रान्तिकारी, धर्म मर्मज्ञ, धर्मात्मा महापुरुष थे / वह एक सफल सम्पादक, लेखक, रचनाकार, टीकाकार तथा संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं के ज्ञाता एवं प्रतिभाशाली ओजस्वी वक्ता भी थे / उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह कही जाना चाहिये कि वह समय के साथ चले, उनका जीवन, उनके कार्यकलाप, सभी समय के अनुरुप रहे और उसी के अनुरुप उन्होंने समाज के ढांचे को भी बदल डाला / समाज में व्याप्त रुढियों का उन्मूलन कर वह समाज में जागृति एवं क्रान्ति लाये / धर्म के क्षेत्र में देश एवं विदेशों में भी अपनी बिलक्षण प्रतिभा के कारण उन्होंने महती धर्म प्रभावना की है, उनका जीवन वास्तव में 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' की भावनाओं से ओतप्रोत था / वह सदैव बहुमान एवं पदलिप्सा से दूर रहा करते थे ।समाज के उत्पीड़न की उनके भीतर तड़प थी और समाज की प्रगति एवं समृद्धि की ओर व धार्मिक जागृति एवं प्रचार-प्रसार की उनमें ललक भी थी। उनकी चारित्रिक बिलक्षणता के प्रति जितना भी और जो कुछ भी लिखा जावे सूर्य को दर्पण दिखाने के सद्दश्य ही कहा जावेगा। इस प्रसंग में यहां पर एक बात और भी खास तौर पर दृष्टिगत करना चाहता हूं कि श्रद्देय स्व० पू० ब्रह्म० शीतलप्रसाद जी ने बिक्रमी (2)Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 104