Book Title: Samajonnayak Krantikari Yugpurush Bramhachari Shitalprasad
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Parishad

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Page 19
________________ थे ही, सर सेठ हुकमचन्द, सेठ लालचन्द सेठी प्रभृति अन्य अनेक श्री मन्त भी उनके प्रति परम आदर भाव रखते थे। समाज का जैसा दर्द, उनकी सर्वतोमुखी उन्नति के लिए जैसी तड़प, धर्म एवं समाज के प्रचार का जैसा उत्कट मिशनरी उत्साह ब्रह्मचारी जी के हृदय में था, ये चीजें ' किसी अन्य धर्म या समाजसेवी सज्जन में कदाचित दीख पड़ी हो, फिर भी उस मात्रा में नहीं। भारत के विभिन्न भागों के अतिरिक्त बर्मा देश और श्रीलंका तक तो वह गए ही, यरोप और अमेरिका जाने की भी उनकी इच्छा थी। वह कार्यक्रम बनते बनते रह गया। ब्रह्मचारी जी की क्षमताएं स्वाभावतः सीमित थीं तथापि उत्साह और लगन में कोई कमी नहीं थी। बैरिस्टर जगमंदर लाल जैनी एवं बैरिस्टर चम्पतराय जैन को इंग्लैंड आदि में जाकर धर्म प्रचार करने में सर्वाधिक प्रबल प्रेरक ब्रह्मचारी जी ही थे / समाज और संस्कृति के निःस्वार्थ सेवकों का निर्माता भी संभवतः ब्रह्मचारी जी जैसा उस युग में दूसरा नहीं हुआ। सेठ माणिक चन्द्र के कार्यों में तो वह सतत् प्रेरक एवं सहयोगी रहे ही जगमंदर लाल जैनी, चम्पतराय जी, कुमार देवेन्द्र प्रसाद, पंडिता मगनबेन, अजित प्रसाद वकील, कामता प्रसाद जैन, मूलचन्द किसनदास कापडिया प्रभृति अनेकों महानुभावों को इस सेवा में रत करने का और उनसे कार्य कराने का प्रमुख श्रेय ब्रहृमचारी जी को ही है / स्वयं हम उनके साक्षात् संपर्क में अपनी किशोरावस्था में ही आ गए थे / सन् 1932 में जब हम आगरा में पढ़ते थे ,तो ब्रह्मचारी जी की ही प्रेरणा से हमने एक लेख लिखा था, जिसे उन्होंने लेकर स्वयं जैनमित्र में प्रकाशित करने के लिये भेजा था / जैन पत्रों में मुद्रित-प्रकाशित वही हमारा सर्वप्रथम लेख था / भनेक बार दर्शन हुए और प्रेरणा प्राप्त की / सन् 1941 में जब हम लखनऊ आ गए तो ब्रह्मचारी जी रुग्णावस्था में यहीं अजिताश्रम में रहकर उपचार करा रहे थे। उनके 10 फरवरी 1942 में निधन पर्यन्त इस बीच उनके पास बहधा मिलना-बैटना होता रहा / जीवन के अंतिम मासों में रोगजनित भीषण परिषहों को वह किस साहस, धैर्य और सहनशीलता के साथ सहन कर रहे थे, वह वर्णनातीत है। (12)

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