Book Title: Samajonnayak Krantikari Yugpurush Bramhachari Shitalprasad
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Parishad

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Page 47
________________ थिरता लखि के ग्रन्थ यह, लिखों स्वपर सुखदाय। जग प्रकार को भाव पड़े, निर्व-रूचिं समकित पाय // 14 // राजमल्ल ज्ञानी भये, टीका रची महान / समयसार कलश की भाषा बैतिरखान // 15 // कुन्दकुन्द आचार्यकृत, समयसार अविकार / प्राकृतमय का भाव लहि, अमृतचन्द्र गुणकार // 16 // संस्कृत कलशा भर दिए, अध्यात्म रस सार / पान करत ज्ञानी सबै, लहें तृप्ति अविकार // 17 // राजमल्लं की बुद्धि को, हो प्रकाश चहुथान / लिखों स्वपरं हिंत जानके, ज्ञान ध्यान सुखखान // 18 // आश्विन सदि चौदह दिना, वार वृहस्पति जान / नेमचन्द्र के थान में, कियो पूर्ण अवहान // 16 // पढ़ो पढ़ावों भविक जन, अध्यात्म रूचि धार / भेद ज्ञान पावों विमल ग्रहो आत्म सुखकार // 20 // करो मनन निज तत्व को, हो अनुभूति निजात्म / निज में थिरता पायके, पावों पद परमात्म // 21 // निज संख निजं में ही वसे, निज से प्रापत होय / निज को ही दीजे सदा, निज ज्यों तिरपित होय // 22 // आपी मारग मोक्ष का, आपी मोक्ष स्वरूप / निजे अपनी आपी लखा, आपी हुआ अनूप // 23 // निश्चय आपी आपको, शरण धरम सखदाय / व्यवहारित पंच परम गुरू, है सहाय गुणदाय // 24 / / अर्हत सिद्धाचार्य उपाध्याय यतिनाथ / बार-बार बन्दन करू, हस्त जोड़ दे माथ // 25 // 40

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