Book Title: Samajonnayak Krantikari Yugpurush Bramhachari Shitalprasad
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Parishad
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________________ दस फरवरी सन ब्यालीस बनी उनकी स्वर्ग निसानी // 16 // कानपुर, लखनऊ से जैन पुरुष महिलायें चलकर आई / सब ही ने मिलकर उनकी अर्थी झंडियों से सजाई // गाजे .बाजों से चली अर्थी नगर के बीचों बीच से जाई / बहुत लम्बा था जलस, कीर्तन करते जाते थे सब भाई // दो घंटे पश्चात उन्हें जैन बाग डालीगंज में पहुंचानी / / 20 // चंदन की लकड़ी से बनी चिता बहुत भव्य सुहानी / दर्शन हेतु जनता उमड़ पड़ी सबही ने अश्रु बहानी // अग्नि प्रज्जवलित हुई लपटें आसमान तक छानी / . देखते ही बनता था वहां चित्र खिचे मनमानी // धीर-वीर साधु थे, निश्चल, सहनशील, सम्यग्ज्ञानी // 21 // यह असार संसार छोड़ ब्रह्मचारी जी स्वर्ग सिधारे / पंडित महेन्द्रकुमार अरु कापड़िया जी भी उन्हें देखने पधारे // संतों का जीवन ही निश्वार्थमय होता है प्यारे / जन-जन के कल्याण हेतु श्री जी इस जग में पधारे / ब्रत-नियम, सामायिक-क्रियायें मानव को होती सुखदानी // 22 / / उनके जीवन से कुछ सीख लेना चाहिये हमको भाई / संसार में आकरके 'स्व-पर' कल्याण करते रहना चाहिये भाई // कर्मों का चक्कर सबको ही भोगना पड़ता है माई / क्या साधु-संत, दौन, वैभव भोगी, विलासी, दानी हो भाई // पुरुषार्थ अरु प्रयत्न से स्वर्ग मोक्ष पाता है प्राणी // 23 / / इक बार सन पच्चीस में वे सागर पधारे थे भाई / विधवा विवाह समर्थक होने से लोगों ने नहिं प्रीत दिखाई // राईसे बजाज सागर ने आदर सहित अपने यहां ठहराई / श्रद्धा-भक्ति विनय से सत्कार कर विद्वान के प्रति प्रीत दिखाई // तब से ही उन्हें मथुराप्रसाद आदि में धर्म की रुचि दिखानी // 24 // तारण स्वामी की समाधि निसई जी श्री जी दो वार पधारे / भव्य स्मारक देखकर ब्रह्मचारी जी गद्गद् हुये थे प्यारे // नदी वेतवा तट पर सामायिक चतरा देख हषित हुए श्री हमारे / वेदी पर जिनवाणी की स्थापना से जय बोल उठे थे प्यारे / जिनवाणी ही संसार में मानव उद्धार करने में समर्थ सत्यवानी // 25 // लखनऊ नगर के मानबों की सहृदयता से मैं प्रसन्न था / अजितप्रसाद वकील का निर्विचिकित्सा अंग देखकर सन्न था /