Book Title: Samajonnayak Krantikari Yugpurush Bramhachari Shitalprasad
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Parishad

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Page 36
________________ भूख खूव लगती है / जिस रोज अधिक कोहरा पड़ता है, हाथ मुंह काला-काला हो जाता है, मिलों के धुंए से यह कोहरा लदा रहता है / अपनी तरफ से कोहरे से यह कहीं अधिक गाढ़ा होता है / आपके यहाँ आने की बात एक दिन श्री चम्पतराय जी ने मुझसे कही थी / आए तो अच्छा है। एक बार यह दुनियां भी देख लें / मैं समझता हूं आपको अपने किसी नियम में विशेष परिवर्तन करने की आवश्यकता न होगी / कुछ तो देश काल का भेद रहता ही है। ' लन्दन से एक अन्य पत्र में उन्होंने ब्रह्मचारी जी को लिखा था- आपका 16-7-32 पत्र यथासमय मिल गया था। श्री चम्पतराय जी से मिलकर मन बड़ा प्रसन्न हुआ / प्रति रविवार को सभा होती है, वह तो सभी दृष्टियों से एक सफल सभा कही जा सकती है- मैं कुछ कहता हूं। लोग ध्यान से सुनते हैं / टीका टिप्पणी प्रायः नहीं करते। अंगरेजों का यह जातीय गुण है कि सबकी सुनते हैं / कभी कभी कुछ लोग शंका समाधान के लिए आते हैं, वह ज्यादह उपयोगी होता है / अपना अधिक समय तो पढ़ने में ही कटता है / श्री राहुल जी आज ब्रिटिश म्युजियम लाइब्रेरी में गये हैं / वैसे ही पुस्तकें पी रहे हैं, जैसे सीलोन में / एक मित्र जो एम० ए० हैं, संस्कृत पाली का उनको अच्छा ज्ञान है / वह जैनधर्म के बारे में जानने की चिन्ता में थे। उनका श्री चम्पत राय जी से परिचय करा दिया है। विद्यावारिधी बैरिस्टर चम्पतराय जी ने लन्दन से अपने 7-7-1638 के पत्र में ब्रह्मचारी जी को लिखा था - I have come to the conclusion that a big scale desirable, but the difficulty is great about its foun. ding We shall not only need about 300,000 to 400, 000 to start it properly, but it must have a perman. ent residence Jajna Philosopher staying in it. At one time I thought you would be able to do it, but I now fear that the climate of this place will be too severely trying for you, and when you go away, there is no one else to take your place. I myself am quite (26)

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