Book Title: Sadhwachar ke Sutra
Author(s): Rajnishkumarmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 130
________________ कल्प प्रकरण ११३ ३०. प्रायश्चित्त-मानसिक सूक्ष्म अतिचार के लिए उनको जघन्यतः चतुर्गुरुक मासिक प्रायश्चित्त लेना होता है। ३१. निष्प्रतिकर्म-वे शरीर किसी भी प्रकार से प्रतिकर्म नहीं करते। आंख आदि का मैल भी नहीं निकालते और न कभी किसी प्रकार की चिकित्सा ही करवाते हैं। ३२. कारण-वे किसी प्रकार के अपवाद का सेवन नहीं करते। ३३. काल-वे तीसरे प्रहर में भिक्षा करते हैं और विहार भी तीसरे प्रहर में करते हैं। शेष समय वे प्रायः कायोत्सर्ग में स्थित रहते हैं। ३४. स्थिति-विहरण करने में असमर्थ होने पर वे एक स्थान पर रहते हैं, किन्तु किसी प्रकार के दोष का सेवन नहीं करते। ३५. समाचारी-साधु-समाचारी के दस भेद हैं। इनमें से वे आवश्यिकी, नषेधिकी, मिथ्याकार, आपृच्छा और उपसंपद्-इन पांच समाचारियों का पालन करते है। प्रश्न १०. यथालन्द-कल्प क्या है? उत्तर-पानी से भीगा हुआ हाथ जितनी देर में सूखे उतने समय से लेकर पांच दिन तक के समय को लन्द कहते हैं। उतने काल का उल्लंघन किए बिना जो साधु विचरते हैं अर्थात् पांच दिन से अधिक एक जगह नहीं ठहरते, वे साधु यथालंदिक कहलाते हैं। प्रश्न ११. स्वयंबुद्ध एवं प्रत्येकबुद्ध मुनि कौन होते हैं? उत्तर-जो गुरु आदि के उपदेश एवं बाह्यनिमित्त के बिना स्वतः प्रतिबोध पाकर दीक्षा लेते हैं वे मुनि स्वयंबुद्ध कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं तीर्थंकर एवं तीर्थंकर-व्यतिरिक्त। तीर्थंकर तो निश्चित रूप से तीन ज्ञान युक्त एवं कल्पातीत होते हैं। तीर्थंकर-व्यतिरिक्त स्वयंबुद्ध मुनि दो तरह के हैंपूर्वजन्म-ज्ञान सहित और पूर्वजन्म-ज्ञानरहित। पूर्वजन्म-ज्ञानसहित स्वयंबुद्ध मुनि कई देवप्रदत्त-साधुलिंग (साधु का वेष) धारण करते हैं और कई गुरु के पास दीक्षा लेते हैं। फिर शक्ति सम्पन्नता के पश्चात् इच्छा होने पर अकेले विचरते हैं अन्यथा गच्छ में रहते हैं। पूर्वजन्म-ज्ञानरहित स्वयंबुद्ध मुनि गुरु के पास साधु-वेष लेकर गच्छ में ही रहते हैं। दोनों ही प्रकार के स्वयंबुद्ध मुनि मुखवस्त्रिका-रजोहरण आदि बारह उपकरण रखते हैं। १. ठाणं ६/१०३/टि. ३६ पृ. ७०४। ३. प्रश्नव्याकरण १०/१० २. प्रवचनसारोद्धार ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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