Book Title: Sadhwachar ke Sutra
Author(s): Rajnishkumarmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 166
________________ व्यवहार प्रकरण १४६ कथा एवं काल के विषय में ध्यान रखना आवश्यक है। प्रश्न ७. क्या साधु गृहस्थों के आसन पर बैठ सकते हैं? उत्तर–पाट, बाजोट, कागज, गत्ते एवं निर्जीव तृण-घास आदि तो विधिपूर्वक गृहस्थों से जाचकर साधु उन पर बैठ या सो सकते हैं। प्रश्न ८. भावनाएं क्या है ? .. उत्तर-१. अनित्यभावना-भरतचक्रवर्तिवत् पदार्थों की अनित्यता का चिंतन करना। २. अशरण भावना-अनाथीमुनिवत् संसार में कोई शरणभूत नहीं है, ऐसा सोचना। ३. संसारभावना मल्लिप्रभुवत् संसार की असारता पर विचार करना। ४. एकत्वभावना नमिराजर्षिवत् यह चिंतन करना कि मैं अकेला जन्मा हूं और अकेला ही मरूंगा। ५. अन्यत्व-भावना-सुकोशल मुनिवत् ऐसे सोचना कि ज्ञानादि गुणों के अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है। तन-धन-पुत्र-कलत्रादि सब पर वस्तुएं हैं। ६. अशुचि भावना सनत्कुमार चक्रवर्तिवत् यों विचारना कि यह शरीर मूल-मूत्र आदि अशुचिपदार्थों का भंडार है एवं रोगों की खान है। ७. आसवभावना-समुद्रपाल की तरह हिंसा आदि आस्रवों को जन्म-मरण की वृद्धि करनेवाले एवं आत्मा को दुःखी बनानेवाले मानना। ८. संवरभावना-मिथ्यात्वादि आसवों को रोकने के लिए संभावित उपायों का अनुशीलन करना एवं गजसुकुमालमुनिवत् आत्मा का संवरण करने का प्रयत्न करना। ९. निर्जराभावनाकृतकर्मों की निर्जरा (क्षय) हुए बिना कभी दुःखों से छुटकारा नहीं होता-ऐसे सोचकर अर्जुनमाली-मुनिवत् उपसर्गों को समभाव से सहन करना १०. धर्म-भावना-दान-शील-तप-भावना रूप का ध्यान करना एवं धर्मरक्षा के लिए धर्मरुचिअनगारवत् हंसते-हंसते देह त्याग देना। ११. लोकभावना-शिवराज-ऋषिवत् लोक के स्वरूप का चिंतन करते हुए वैराग्य को प्राप्त होना। १२. बोधिभावना-सम्यग्दर्शन की दुलर्भता का चिंतन करना एवं श्री ऋषभदेवभगवान् के अट्ठानवें पुत्रों की तरह सम्यक्त्व का महत्त्व समझकर वैराग्यवान् बनना, संयम लेना। १. उत्तरा. १८ २. उत्तरा. २० ३. ज्ञाता.८ ४. उत्तरा. ६ ५. उत्तरा. २१ ६. अन्तकृतदशा वर्ग ३, अ. ८ ७. अन्तकृतदशा वर्ग ३, अ. ३ ८. ज्ञाता. अ. १६ ६. भगवती ११/8 १०. सूत्रकृतांग २/१/१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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