Book Title: Sadhwachar ke Sutra
Author(s): Rajnishkumarmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 150
________________ सचित्त-अचित्त प्रकरण १३३ अपनी आवश्यकतानुसार बनाये हुए धोवन, गर्म पानी आदि में से संकोच करके साधुओं को देना धर्म है किन्तु उनके लिए अधिक बनाकर देना धर्म न होकर प्रत्युत दोष का कारण है । स्थानांग २ / १ / १२५ में शुद्ध साधु को अशुद्ध आहार आदि देने से अल्प आयुष्य (पाप कर्म) का बंध होना कहा है | श्रावक सम्यक्त्व ग्रहण करते समय एक पच्चक्खाण करता है कि मैं शुद्ध साधु को जानबूझकर अशुद्ध आहार- पानी तीन करण तीन योग से नहीं दूंगा । प्रश्न २६. वह गृहस्थ, जिसके कच्चा पानी पीने का त्याग नहीं हैं, प्रासुक (पक्का) पानी बनाएं तो क्या साधु-साध्वी ले सकते हैं ? उत्तर - ले सकते हैं लेकिन वह साधु-साध्वी के निमित्त न हो। अच्छा हो गृहस्थ स्वय कच्चा पानी पीने का त्याग करे । प्रश्न ३०. एक बार जो पानी प्रासुक (पक्का) हो जाता हैं, क्या वह पुनः सचित्त हो सकता है ? उत्तर - हां प्रासुक पानी में यदि थोड़ा भी कच्चा पानी मिल जाए तो सारा पानी सचित्त माना जाता है । किन्तु जिस पानी में चूना, राख आदि पदार्थ दिखाई देते हों उसमें यदि पाव आधा पाव सचित्त पानी मिल जाए तो दस मिनिट बाद उस पानी को अचित्त मानने कि विधि है । प्रश्न ३१. तुरंत उबाले हुए पानी में यदि थोड़ा कच्चा पानी मिल जाए तो क्या वह पानी अचित्त माना जाता है ? उत्तर - उसे अचित्त नहीं, सचित्त माना जाता हैं । उस पानी को फिर से पूरा उबालें, तभी वह अचित्त बनता है । प्रश्न ३२. जो बर्तन कच्चे पानी में या नल आदि के नीचे साफ किये जाते हैं, वे कितनी देर बाद सूझते हो सकते हैं ? उत्तर- ऐसे बर्तन जब तक पूरे सूख न जाए, तब तक सूझते नहीं होते इसलिए इनका उपयोग लेते वक्त सचित्त या कच्चे पानी के त्याग वालों को विशेष सावधानी रखनी चाहिए । प्रश्न ३३. साधु-साध्वी जिस स्थान से एक बार पीने के लिए पानी ले लेते है तो क्या उसके बाद बनाया गया खाना आदि बहर सकते है ? उत्तर - हां, लिया जा सकता है, क्योंकि गौचरी और पानी का कल्प अलग अलग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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