Book Title: Sadhwachar ke Sutra
Author(s): Rajnishkumarmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 157
________________ १४० साध्वाचार के सूत्र एक साथ बजने वाले शंख-भेरी-काहला-ढक्का-घण्टा आदि वाद्य-विशेषों के शब्द पृथक्-पृथक् रूप से सुनने में समर्थ हो जाते हैं। ७. अवधिज्ञानलब्धि इस लब्धि से संपन्न मुनि अवधिज्ञानी होते हैं। ८,९. ऋजुमति-विपुलमतिलब्धि-इन लब्धियों वाले मुनि मनःपर्यवज्ञानी होते हैं। मनःपर्यवज्ञानी दो प्रकार के हैं-ऋजुमति-मनःपर्यवज्ञानी और विपुलमति-मनःपर्यवज्ञानी। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी मनुष्यलोकवर्ती संज्ञिपञ्चेन्द्रियों के मानसिक-विचार सामान्य रूप से जानते हैं एवं विपुलमतिमनःपर्यवज्ञानी विशेष रूप से जानते हैं तथा निश्चित रूप से केवलज्ञानी बनते हैं। १०. चारणलब्धि-इस लब्धिवाले मुनि आकाश में गमन करने की शक्ति से सम्पन्न होते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-जंघाचारण एवं विद्याचारण ।' जंघाचारणलब्धि विशिष्टचारित्र व निरन्तर अट्ठम-अट्ठम तप के प्रभाव से प्राप्त होती है और विद्याचारणलब्धि विद्या के कारण उपलब्ध होती है (इसके धारक मुनि विद्याधर होते हैं। इसमें निरन्तर छट्ट-छ? तप किया जाता है। जंघाचारण मुनि जंघा की विशेष-शक्ति से एक ही उड़ान में रुचक (तेरहवें) द्वीप तक जा सकते हैं किन्तु आते समय उन्हें दो उड़ानें भरनी पड़ती हैं। पहली उड़ान से नन्दीश्वर (आठवें) द्वीप पहुंचते हैं एवं दूसरी उड़ान भर कर अपने निवास स्थान पर आते हैं। ऊपर की ओर उड़ान भरते समय वे एक ही उड़ान में मेरुपर्वत के शिखर पर रहे हए पाण्डुक वन तक चले जाते हैं लेकिन लौटते समय पहली उड़ान से नन्दन वन में आते हैं और फिर दूसरी उड़ान भर कर अपने स्थान पर पहुंच जाते हैं। विद्याचारण मुनि विद्या की सहायता से नन्दीश्वर द्वीप तक जाते हैं। जाते समय वे दो उड़ाने भरते हैं पहली उड़ान से मानुषोत्तरपर्वत तक पहुंचते हैं और दूसरी उड़ान से नन्दीश्वरद्वीप प्राप्त करते हैं किन्तु लौटते समय एक ही उड़ान में स्वस्थान पहुंच जाते हैं। ऊपर जाते समय पहली उड़ान में नन्दनवन एवं दूसरी उड़ान में पाण्डुकवन पहुंचते हैं तथा आते समय एक ही उड़ान में अपने स्थान पर आ जाते हैं। विद्याचारण मुनि की शीघ्र गति उस देवता के समान है, जो तीन चुटकी बजाने जितनी देर में जम्बूद्वीप की तीन प्रदक्षिणा कर आता है किन्तु जंघाचारण मुनि की गति इससे सात गुनी अधिक है। १. भ. २०/६/७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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