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सिद्धार्थ ने अपने मित्र से पूछा - "प्रभु को क्या कष्ट है ? क्या शल्य है ? देखकर बताओ ?”
वैद्य ने प्रभु महावीर के पवित्र शरीर का निरीक्षण किया। उसे रोग समझ आ गया। उसने कहा - "किसी दुष्ट प्राणी इस तपस्वी के कानों में कीलें ठोक दी हैं । "
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सिद्धार्थ को कीलों की बात सुनकर बहुत दुःख हुआ । उसने अपने मित्र खरक वैद्य से कहा- ' "देवानुप्रिय ! इस भिक्षु के कानों में से कीलें जल्दी निकालो। हमें बहुत पुण्य मिलेगा। ऐसा तरुण तपस्वी कहाँ मिलता है ? यह तो साक्षात् भगवान का रूप है? हमारे घर अपनी तप की पूर्ति हेतु पधारे हैं। इनकी सेवा करने से हमारे जन्म-जन्मांतर के कष्ट समाप्त हो जायेंगे ।"
सिद्धार्थ की वाणी श्रद्धामय थी । वह इस गुरु की पीड़ा को दूर करने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार था । वह श्रद्धा व भक्ति से भरा हुआ था । वैद्य खरक व सिद्धार्थ तो कीलें निकालने को तैयार हुए। प्रभु महावीर ने उन्हें स्वीकृति न दी । वह सचमुच महावीर थे। कोई महावीर ही इतने संकट झेल सकता है। वह उस दिन बिना भिक्षा ग्रहण किये जंगल की ओर चल दिये।
खरक वैद्य व सिद्धार्थ भी अपनी धुन के पक्के थे । भक्त होते ही ऐसे हैं । कच्चा व्यक्ति क्या भक्ति करेगा ? भक्ति के लिये श्रद्धा की आवश्यकता है ? जो व्यक्ति मात्र तर्क रखता है वह प्रभु का प्यार नहीं पा सकता ।
दोनो जंगल में गये। प्रभु महावीर वहाँ ध्यानस्थ थे। उन दोनों के पास औषधि व जरूरत के उपकरण थे । वे उद्यान में पहुँचे। प्रभु महावीर को देखा । उन्हें शरीर की सुध ही कहाँ थी ? वह तो आत्म-साधना में लीन थे।
उन्होंने प्रभु महावीर के कानों से कीलें निकाल दीं। दोनों कानों से खून के फुआरे छूट पड़े। इतने बड़े उपसर्ग में भी प्रभु महावीर ने कठोर साधना जारी रखी थी ।
कहा जाता है कि इस अतीव भयंकर वेदना से भगवान महावीर के मुँह से एक भयंकर चीख निकली। इस चीख से अंदाज लगाया जा सकता है कि यह पीड़ा कितनी भयंकर थी । जो प्रभु महावीर १२ वर्ष पीड़ाएँ, अवहेलनाएँ, यातनाएँ सहकर भी नहीं डोले । तब उन्होंने कोई दुःख अनुभव नहीं किया। उनकी इस चीख से सारा देवलोक काँप उठा।
वैद्य ने शीघ्र ही संरोहण औषधि से रुधिर को बन्द कर दिया। घाव पर दवाई लगाई। फिर प्रभु महावीर को श्रद्धापूर्वक नमन कर क्षमा याचना कर घर को आ गये । ८६
धन्य हैं ऐसे भक्त और उनका भगवान । भक्त भगवान के पीछे ही चलता है। यह घटना इस परम्परा को दर्शाती है कि भक्त अपने भगवान का अनुकरण करता है।
भगवान महावीर की विदेह साधना
प्रथम अंग आचारांगसूत्र में प्रभु महावीर की साधना का अनुपम ढंग से वर्णन किया गया है जिसके कुछ अंश हम पाठकों के ज्ञान के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं
शीतकाल की ठंड और गर्मी की आग की लू, वर्षा की तूफानी हवायें उनको कभी विचलित न कर सकीं।
दीक्षा के समय प्रभु महावीर के शरीर पर गोशीर्ष चन्दन का लेप किया गया था। सुगन्धित विलेपन और उबटन किये गये थे। उस विलेपन की सुगन्ध कई मास उनके शरीर पर बनी रही। प्रभु महावीर के लिए यह सुगन्ध ही कष्ट का कारण बनी। प्रभु महावीर जब जंगल में खड़े होकर ध्यान करते थे, तो उनकी देह से मीठी सौरभ हवा के साथ फैलकर वातावरण को सुगन्धित बना देती थी । इस मधुर सौरभ से खिंचे भँवरे प्रभु महावीर के शरीर पर आकर लिपटने लगते जैसे फूलों से लिपट रहे हों ।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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