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गोशालक का अन्तिम संस्कार __ आजीवक स्थविरों के लिये गोशालक के मरण से भी उसके अन्तिम आदेश का पालन करना अधिक दुःखदायक था। इसके पालन में गोशालक के साथ उनका अपना अपमान था पर शपथबद्ध होने के कारण वे इस बात का अनादर भी नहीं कर सकते थे। खूब सोच-विचार के बाद उन्होंने शपथ-मोक्ष का उपाय खोज निकला। तुरंत हालाहला की भाण्डशाला का द्वार बन्द किया और चौक के मध्य में श्रावस्ती की एक विस्तृत नक्शे के रूप में रचना की। बाद में गोशालक के आदेशानुसार उसके शव को उस कल्पित श्रावस्ती में सर्वत्र फिराया और अतिमन्द स्वर से उस प्रकार की उद्घोषणा भी कर दी।
इस प्रकार आजीवक स्थविरों ने अपने धर्माचार्य के आदेश के पालन का नाटक खेला। फिर शव को नहलाकर चन्दन-विलेपनपूर्वक उज्ज्वल वस्त्र से ढककर पालकी में रखा और सारी श्रावस्ती में फिराकर उसका उचित संस्कार किया।५५ श्रमण भगवान महावीर की बीमारी व सिंह अनगार
गोशालक के देहान्त के बाद भगवान महावीर श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य से विहार करते हुए मेंढिक गाँव के बाहर सालकोष्ठक चैत्य में पधारे। भगवान का आगमन सुनकर श्रद्धालु जन वन्दन और धर्मश्रवण के लिये सम्मिलित हुए। भगवान ने धर्मदेशना दी जिसे सुनकर सभा विसर्जित हुई। ___ मंखलि गोशालक ने श्रावस्ती के उद्यान में भगवान पर जो तेजोलेश्या छोड़ी थी उससे यद्यपि तात्कालिक हानि नहीं हुई थी, पर उसकी प्रचण्ड ज्वालाएँ अपना थोड़ा-सा प्रभाव उन पर कर ही गईं। उसके ताप से आपके शरीर में पित्तज्वर हो गया था। जिस समय आप में ढिक ग्राम में विराजे थे, गोशालक-घटना को छह महीने होने आये थे। तब तक पित्त-ज्वर और खून के दस्तों से महावीर का शरीर काफी शिथिल और कृश हो गया था। भगवान की यह दशा देखकर वहाँ से वापस जाते हुए नगरवासी आपस में बातें कर रहे थे-"भगवान का शरीर क्षीण हो रहा है, कहीं गोशालक की भविष्यवाणी सत्य न हो जाय?'
सालकोष्ठक चैत्य के पास मालुकाकच्छ में ध्यान करते हुए भगवान के शिष्य 'सिंह' अनगार ने उक्त लोक-चर्चा सुनी। छट्ठ-छट्ठ तप और धूप में आतापना करने वाले महातपस्वी सिंह अनगार का ध्यान टूट गया। वे सोचने लगे-'भगवान को करीब छह महीने हुए पित्त-ज्वर हुआ है। साथ में खून के दस्त भी हो रहे हैं। शरीर बिलकुल कृश हो गया है। क्या सचमुच ही गोशालक का भविष्य-कथन सत्य होगा? यदि ऐसा ही हुआ तो मेरे धर्मोपदेशक धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर के संबंध में संसार क्या कहेगा?' इत्यादि विचार करते-करते उनका दिल हिल गया। उन्होंने तपोभूमि से प्रस्थान किया और कच्छ के मध्य भाग में आते-आते रो पड़े, वहीं खड़े-खड़े वे फूट-फूटकर रोने लगे।
भगवान ने अनगार सिंह का रोना और उसका कारण जान लिया। अपने शिष्यों को संबोधन करते हुए महावीर ने कहा-"आर्यो ! सुनते हो। मेरा शिष्य सिंह मेरे रोग की चिन्ता से मालुकाकच्छ में रो रहा है ! श्रमणो ! तुम जाओ और अनगार सिंह को मेरे पास बुला लाओ।"
भगवान का आदेश पाते ही श्रमण निर्ग्रन्थों ने सिंह के पास जाकर कहा- “चलो सिंह ! तुम्हें धर्माचार्य बुलाते हैं।"
श्रमणों के साथ सिंह सालकोष्ठक चैत्य की तरफ चले और आकर भगवान को त्रिप्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमस्कार कर हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हुए।
सिंह के मानसिक दुःख का कारण प्रकट करते हुए भगवान बोले-“वत्स सिंह ! मेरे अनिष्ट भावी की चिन्ता से तू रो पडा।"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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