________________
महावीर-“ब्राह्मण्यनयों में 'मास' दो प्रकार के कहे गये हैं-(१) द्रव्यमास (माष), और (२) कालमास। इनमें कालमास श्रावण से आषाढ़ पर्यन्त बारह हैं, जो अभक्ष्य हैं।
द्रव्यमास (माष) दो प्रकार के कहे हैं-(१) अर्थमास (माष), और (२) धान्यमास (माष)। इनमें से अर्थमाष दो प्रकार के होते हैं-(१) सुवर्णमाष, और (२) रूप्यमाष। ये दोनों श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। रहे धान्यमाष, सो उनके भी शस्त्रपरिणत-अशस्त्रपरिणत, एषणीय-अनेषणीय, याचित-अयाचित, लब्ध-अलब्ध आदि अनेक प्रकार हैं। इनमें शस्त्रपरिणत एषणीय याचित और लब्ध धान्यमाष श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं, शेष अभक्ष्य।"
सोमिल-“भगवन् ? 'कुलत्था' आपके भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ?" महावीर-"कुलत्था भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी।" सोमिल–“यह कैसे?" महावीर-"ब्राह्मण्य-ग्रन्थों में 'कुलत्था' शब्द के दो अर्थ होते हैं-(१) कुलथी धान्य और (२) कुलीन स्त्री।
कुलीन स्त्री तीन प्रकार की होती है-(१) कुलकन्या, (२) कुलवधु, और (३) कुलमाता। ये कुलत्था श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं।
'कुलत्था' धान्य भी सरिसवय की तरह अनेक तरह का होता है, उसमें शस्त्रपरिणत, एषणीय, याचित और लब्ध 'कुलत्था' श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं, शेष अभक्ष्य।"
सोमिल-"भगवन् ! आप एक हैं या दो? तथा आप अक्षय, अव्यय और अवस्थित हैं या भूत, वर्तमान, भविष्यत् के अनेक रूपधारी?"
महावीर-“मैं एक भी हूँ और दो भी। मैं अक्षय, अव्यय, अवस्थित हूँ और भूत, वर्तमान, भविष्यद्रूपधारी भी।" सोमिल-"भगवन् ! यह कैसे?"
महावीर-“सोमिल ! मैं आत्मद्रव्य रूप से एक हूँ और ज्ञान-दर्शन रूप से दो भी हूँ। मैं आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से अक्षय, अव्यय, अवस्थित हूँ पर उपयोग-पर्याय की अपेक्षा से भूत, वर्तमान और भविष्यत् के नाना रूपधारी भी हूँ।
धर्मचर्चा सुनकर सोमिल ब्राह्मण तत्त्वमार्ग को समझ गया। वह वन्दन करके बोला-"भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है। मैं आपके निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। मैं अन्य राजा-महाराजाओं और सेठ-साहूकारों की तरह आपके पास निर्ग्रन्थ श्रमणमार्ग की प्रव्रज्या ग्रहण करने में तो समर्थ नहीं हूँ, परन्तु मैं आपके पास श्रावकधर्म को स्वीकार कर सकता हूँ।" भगवान की आज्ञा प्राप्त कर सोमिल ने श्रावकधर्म के द्वादश व्रत ग्रहण किए और भगवान को वन्दन कर अपने घर गया।
श्रमणोपासक होने के बाद सोमिल ने निर्ग्रन्थ प्रवचन का विशेष तत्त्वज्ञान प्राप्त किया और अन्त में समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गवासी हुआ।७०
भगवान महावीर ने तीसवाँ वर्षा चातुर्मास वाणिज्यग्राम में व्यतीत किया। इकतीसवाँ वर्ष
वाणिज्यग्राम का वर्षावास पूर्ण कर भगवान कोशल देश के साकेत, सावत्थी आदि नगरों को पावन करते हुए पांचाल की ओर पधारे तथा कम्पिलपुर के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में विराजे। कम्पिलपुर में अम्बड नामक एक ब्राह्मण परिव्राजक अपने सात सौ शिष्यों के साथ रहता था। उसने भगवान महावीर के त्याग-वैराग्यमय जीवन को देखा, केवलज्ञान, केवलदर्शन से युक्त प्रवचन सुने तो वह अपने शिष्यों के साथ जैनधर्म का उपासक हो गया। परिव्राजक सम्प्रदाय की वेश-भूषा रखने पर भी वह जैन श्रावकों के पालन योग्य व्रत-नियमों का सम्यक् प्रकार से पालन करता था।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
- २१९ |
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org