Book Title: Sachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Author(s): Purushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti

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Page 305
________________ आपने कहा-‘“तीर्थंकरों के समय में यह भारतवर्ष धनधान्य से समृद्ध, नगर-गाँवों से व्याप्त स्वर्ग सदृश होता है। तत्कालीन ग्राम-नगर समान, नगर-देवलोक समान, कौटुम्बिक राजातुल्य और राजा कुबेरतुल्य समृद्ध होते हैं । उस समय आचार्य चन्द्र समान, माता-पिता देवता समान, सास माता समान, श्वसुर पिता समान होते हैं। तत्कालीन जनसमाज धर्माधर्मविधिज्ञ, विनीत, सत्य - शौच - सम्पन्न, देव- गुरुपूजक और स्वदारसंतोषी होता है। विज्ञानवेत्ताओं की कदर होती है। कुल, शील तथा विद्या का मूल्य होता है। लोग ईति, उपद्रव, भय और शोक से मुक्त होते हैं। राजा जिन भक्त होते हैं और जैनधर्म-विरोधी बहुधा अपमानित होते हैं। यह सब आज तक था। अब जब चौपन उत्तम पुरुष व्यतीत हो जायेंगे और केवली, मन:पर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी तथा श्रुतकेवली इन सबका विरह हो जायेगा तब भारतवर्ष की दशा इसके विपरीत होती जायेगी। प्रतिदिन मनुष्य समाज क्रोधादि कषाय - विष से विवेकहीन बनते जायेंगे। प्रबल जल-प्रवाह के आगे जैसे गढ़ छिन्न-भिन्न हो जाता है वैसे ही स्वच्छन्द लोक - प्रवाह के आगे हितकर मर्यादाएँ छिन्न-भिन्न हो जायेंगी । ज्यों-ज्यों समय बीतता जायेगा जन-समाज दया - दान - सत्यहीन और कुतीर्थिकों से मोहित होकर अधिकाधिक अधर्मशील होता जायेगा । उस समय ग्राम श्मशानतुल्य, नगर प्रेतलोक सदृश, भद्रजन दास समान और राजा लोग यमदण्ड समान होंगे। लोभी राजा अपने सेवकों को पकड़ेंगे और सेवक नागरिकों को । इस प्रकार मत्स्यों की तरह दुर्बल सबलों से सताये जायेंगे। जो अन्त में हैं वे मध्य में और मध्य में हैं वे प्रत्यन्त होंगे। बिना पतवार के नाव की तरह देश डोलते रहेंगे। चोर धन लूटेंगे। राजा करों से राष्ट्रों को उत्पीड़ित करेंगे और न्यायाधिकारी रिश्वतखोरी में तत्पर रहेंगे। जनसमाज स्वजन-विरोधी, स्वार्थप्रिय, परोपकार - निरपेक्ष और अविचारितभाषी होगा। बहुधा उनके वचन सारहीन होंगे। मनुष्यों की धन-धान्य विषयक तृष्णा कभी शान्त नहीं होगी। वे संसार - निमग्न, दाक्षिण्यहीन, निर्लज्ज और धर्म श्रवण में प्रमादी होंगे। दुषमाकाल के शिष्य गुरुओं की सेवा नहीं करेंगे और गुरु शिष्यों को शास्त्र का शिक्षण नहीं देंगे। गुरुकुलवास की मर्यादा उठ जायेगी। लोगों की बुद्धि धर्म में शिथिल हो जायेगी और पृथ्वी क्षुद्र जन्तुओं से भर जायेगी । देव पृथ्वी पर दृष्टिगोचर नहीं होंगे। पुत्र माता-पिता की अवज्ञा करेंगे और कटु वचन सुनावेंगे। हास्यों भाषणों, कटाक्षों और सविलास निरीक्षणों से निर्लज्ज कुलवधुएँ वेश्याओं को भी शिक्षण देंगी । श्रावक-श्राविका और दान - शील- तप - भावात्मक धर्म की हानि होगी । थोड़े से कारण से श्रमणों और श्रमणियों में झगड़े होंगे। धर्म में शठता और चापलूसी का प्रवेश होगा । झूठे तोल - माप प्रचलित होंगे। बहुधा दुर्जन जीतेंगे और सज्जन दुःख पायेंगे। विद्या, मंत्र, तंत्र, औषधि, मणि, पुष्प, फल, रस, रूप, आयुष्य, ऋद्धि, आकृति, ऊँचाई और धर्म इन सब उत्तम पदार्थों का ह्रास होगा और दुषम-दुषमा नामक छठे आरे में तो इनकी अत्यन्त ही हीनता हो जायेगी । प्रतिदिन क्षीणता को प्राप्त होते हुए इस लोक में कृष्ण पक्ष में चन्द्र की तरह जो मनुष्य अपना जीवन धार्मिक बनाकर धर्म में व्यतीत करेंगे उन्हीं का जन्म सफल होगा। इस हानिशील दुषमा समय के अन्त में दुःप्रसह आचार्य, फल्गुश्री साध्वी, नागिल श्रावक और सत्यश्री श्राविका इन चार मनुष्यों का चतुर्विधसंघ शेष रहेगा। विमलवाहन राजा और सुमुख अमात्य ये दुषमाकालीन भारतवर्ष के अन्तिम राजा और अमात्य होंगे। दुषमा के अन्त मनुष्य का शरीर दो हाथ भर और आयुष्य बीस वर्ष का होगा। दुषमा के अन्तिम दिन पूर्वाह्न में चारित्रधर्म का, मध्याह्न में राजधर्म का और अपराह्न में अग्नि का विच्छेद होगा। यह इक्कीस हजार वर्ष का दुषमाकाल पूरा होकर इतने ही वर्षों का दुषम-दुषमा नामक छठा आरा लगेगा । तब धर्मनीति, राजनीति आदि के अभाव में लोक अनाथ होंगे। माता, पुत्रादि का व्यवहार लुप्त होगा और मनुष्यों में पशुवृत्तियाँ प्रचलित होंगी । Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only २४५ www.jainelibrary.org

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