Book Title: Sachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Author(s): Purushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti

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Page 310
________________ गौतम को वह रुकावट समझ नहीं आ रही थी, जो उनको केवलज्ञान नहीं हो रहा था। वह आत्म-निरीक्षण करने लगे, पर उन्हें रुकावट का पता नहीं चल रहा था। सर्वज्ञ प्रभु महावीर भी गणधर गौतम के दुःख से परिचित थे। उन्होंने कई बार गौतम को इसका कारण बताते हये कहा था-"गौतम ! तम्हारे मन में मेरे प्रति अनराग है, स्नेह है। स्नेह-बंधन के कारण ही तुम अपने मोह का क्षय नहीं कर पा रहे। वह मोह ही सर्वज्ञता में बाधक बन रहा है। गौतम ! तुम अतीत काल से मेरे साथ स्नेह-बंधन में बँधे हो। तुम जन्म-जन्म से मेरे प्रशंसक रहे हो, मेरे परिचित क जन्मों में मेरी सेवा करते रहे हो. मेरा अनसरण करते रहे हो और प्रेम के कारण मेरे पीछे-पीछे दौडते पिछले देवभव एवं मनुष्यभव में भी तुम मेरे साथी रहे हो। अपना स्नेह-बंधन सुदीर्घकालीन है। मैंने उसे तोड दिया है। तुम अभी उस बंधन को नहीं तोड़ पाये। विश्वास करो, तुम भी बहुत शीघ्र बंधन से मुक्त होकर, अब यहाँ से देहमुक्त होकर हम दोनों एक समान एक लक्ष्य, भेदरहित, तुल्य रूप प्राप्त कर लेंगे।"१०० ___ जब संसार के सभी धर्मों का अवलोकन करते हैं तो भक्त कभी भगवान नहीं बन पाया। भक्त भक्त रहा है और प्रभु से आशीर्वाद पाता रहा है। पर यह जैन परम्परा है जहाँ भक्त को भी भगवान बनने का अवसर मिला है। इस घटना से यह भी पता लगा है कि गुरु को शिष्य के आत्म-कल्याण की कितनी चिंता रहती है। यह प्रभु महावीर की महानता थी, पर गणधर गौतम इन्द्रभति का प्रभ महावीर के प्रति समर्पण चरम सीमा पर च चका था। उन्होंने मोक्षलक्ष्मी के स्थान पर प्रभ-भक्ति को स्थान दिया। कितना स्वार्थरहित उनका जीवन था? समर्पण का जीता-जागता प्रमाण गणधर गौतम से बढ़कर कहीं नहीं दीखता। इसी समर्पण के कारण वह प्रभु के आशीर्वाद का पात्र बना। पर प्रभु महावीर ने गौतम को वरदान दिया-“तुम भी मेरे समान सिद्ध, बुद्ध, अमर, मुक्त बनोगे।' इस वरदान को पाकर गणधर गौतम की आत्मा को परम शान्ति मिली। गणधर गौतम चार ज्ञान के धारक थे। प्रभु महावीर से उन्हें १४ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त हुआ था। ११ अंगों के ज्ञाता थे। प्रभु महावीर से वह एक क्षण भी कभी दूर नहीं रहे। प्रभु महावीर ने भी उन्हें अपना प्रिय शिष्य माना है। वह सरलात्मा थे। विनय के प्रतीक थे। प्रभु महावीर से आयु में बड़े थे। लब्धि के धारक होने के साथ-साथ वह रत्नत्रय की साधना में स्वयं को लीन रखते थे। वह किसी प्रकार के अहं से मुक्त थे। जैन परम्परा में गणधर गौतम को मंगल माना है। उनका नाम-स्मरण भक्तों के दुःख दूर करने वाला है। दीवाली और प्रभु का निर्वाण महोत्सव __ आचार्य भद्रबाहु ने कल्पसूत्र में उल्लेख किया है जिस रात्रि को भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, उस रात्रि से ९ काशी, ९ लिच्छवी, १८ काशी कौशल के राजाओं ने पौषध व्रत अंगीकार कर रखा था। __ अमावस्या का अंधेरा था। उन राजाओं ने कहा-"आज संसार से भाव उद्योत उठ गया है अतः अब हम द्रव्य उद्योत करेंगे।" जिस रात्रि प्रभु महावीर का परिनिर्वाण हुआ उस रात्रि को देवियों के गमनागमन से भूमण्डल आलोकित हुआ। अंधकार मिटाने के लिए मानवों ने दीप सँजोये। इस प्रकार दीपमाला पर्व का प्रारम्भ हुआ।१०१ ____ भगवान महावीर के निर्वाण का समाचार सुनकर सुर-असुर जाति के सभी इन्द्र अपने परिवारों सहित धरती पर पहुँचे। सभी देव अपने को अनाथ मान रहे थे। भाव-विह्वल थे। शुक्र के आदेश से गोशीर्ष चन्दन और क्षीरोदक लाया गया। क्षीरोदक से प्रभु महावीर के पार्थिव शरीर को स्नान कराया गया। फिर चन्दन का लेप किया गया। दिव्य वस्त्र ओढ़ाया गया। उसके पश्चात् शरीर को देव-निर्मित शिविका में रखा गया। | २५० - सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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