Book Title: Sachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Author(s): Purushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti

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Page 308
________________ प्रभु महावीर से इस प्रकार का भविष्य-कथन सुनकर हस्तिपाल आदि राजा ने दीक्षा स्वीकार की। चातुर्मास के ३ महीने पूर्ण हुए। कार्तिक मास का कृष्ण पक्ष चल रहा था। प्रभु महावीर अपने समवसरण से जनकल्याण की अमृतमय वाणी सुना रहे थे। उस समय प्रभु के समवसरण में काशी, कोशल के नौलिच्छवी नौ मल्ल राजा भी प्रभु महावीर का उपदेश सुन रहे थे। इनके साथ प्रभु महावीर के सांसारिक बड़े भ्राता राजा नन्दीवर्द्धन, बहिन सुदर्शना भी उपदेश सुन रही थीं। शक्र की आयु में वृद्धि की प्रार्थना जब प्रभु महावीर का परिनिर्वाण का समय सन्निकट आया तो शक्रेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। देवों के परिवार उपस्थित होने लगे। ___शक्र भाव-विह्वलता के साथ प्रभु महावीर के समवसरण में पहुँचा और निवेदन करने लगा-"प्रभु ! आप सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान हैं। आपका गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए थे। इससे इन नक्षत्रों में २००० वर्ष तक चलने वाला भस्मक ग्रह आने वाला है जिसके प्रभाव से जिनशासन व धर्म को बहत हानि होगी। २००० वर्ष बाद आपके निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी का सम्मान सत्कार पुनः प्रकट होगा, इसलिए आप अपना आयुष्य बल बढ़ा लें जिससे यह ग्रह आपके धर्मसंघ को प्रभावित न कर सकें।' __ प्रभु महावीर शक्रेन्द्र की बात से मुस्कराये, फिर बोले-"शुक्र ! आयुष्य कभी बढ़ाया नहीं जा सकता। ऐसा न कभी हुआ है, न कभी होगा। दुःषमा काल के प्रभाव से जिन शासन में जो बाधा होती है, वह तो होगी ही।'९६ अन्तिम देशना और परिनिर्वाण अब प्रभु महावीर का परिनिर्वाण का समय आ चुका था। इस बात को प्रभु स्वयं जानते थे। इसलिए उन्हें अपने प्रिय शिष्य लब्धिधारी गौतम का ध्यान आया। प्रभु महावीर ने करुणा की। इस पास के गाँव में देव शर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोधित करके भिजवा दिया। पर गणधर गौतम तो साधना व सहजता के पुँज थे। वैसे भी गुरु-आज्ञा शिष्य का सर्वस्व होती है। प्रभु महावीर जानते थे कि मेरे निर्वाण से गणधर गौतम को कितनी पीड़ा होगी।९७ ।। प्रभु महावीर ने अपनी अन्तिम देशना शुरू की। यह उपदेश १६ पहर तक चला। उस देशना में ५५ अध्ययन पुण्यफल विपाक के, ५५ अध्ययन पापफल विपाक के कहे।९८ आजकल यह अध्ययन १०-१० अध्ययन के रूप में मिलते हैं। बाकी अध्ययन लुप्त हो गये हैं। प्रभु महावीर ने छत्तीस अध्ययनों वाला अपृष्ठ व्याकरण फरमाया, जो उत्तराध्ययनसूत्र के रूप में विश्वविख्यात है। निर्वाण प्रक्रिया सैंतीसवाँ अध्ययन का नाम प्रधान था। उसका कथन करते-करते प्रभु महावीर पर्यंकासन में स्थिर हो गये। भगवान महावीर ने बादर काययोग में स्थिर रहकर वादर मनोयोग, बादर वचनयोग का निरोध किया। फिर काययोग से स्थित रहकर बादर काययोग को रोका। वाणी और मन के सूक्ष्म योग को रोका। शुक्लध्यान के "सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाती' नामक तृतीय चरण को प्राप्त कर सूक्ष्म काययोग निरुन्धन किया। समुच्छिन्न क्रिया, निवृत्ति नामक शुक्लध्यान का चतुर्थ चरण प्राप्त किया। पुनः अ-इ-उ, ऋ, लू के उच्चारण काल जितनी शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर चतर्विध अघाती कर्मफल का क्षय कर भगवान महावीर द्ध और मुक्त हुए। उनका जन्म-मरण समाप्त हो गया। वह वीतराग परमात्मा बन गये। वह निरंजन व अशरीर आत्मा सिद्धशिला पर जा विराजे। आचार्य भद्रबाहु ने निर्वाण-कल्याणक का चित्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है २४८ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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