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हे उदक ! कितने ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो कहते हैं कि हम गृह त्यागकर श्रामण्य धारण करने में समर्थ नहीं हैं। अभी हम श्रावकधर्म स्वीकार करते हैं, क्रमशः चारित्र का भी स्पर्श करेंगे। वे अपनी अविरतिमय प्रवृत्तियों को मर्यादित करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि 'राजाज्ञा आदि कारण से गृहपति अथवा चोर के बाँधने-छोड़ने के अतिरिक्त हम त्रस जीवों की हिंसा नहीं करेंगे।' यह प्रतिज्ञा भी उनके कुशल का ही कारण है।
आर्य उदक ! 'त्रस मरकर स्थावर होते हैं अतः त्रसहिंसा के प्रत्याख्यानी के हाथ से उनकी हिंसा होने पर उसके प्रत्याख्यान का भंग हो जाता है' यह तुम्हारा कथन ठीक नहीं है क्योंकि 'त्रस नामकर्म' के उदय से ही जीव 'वस' कहलाते हैं, परन्तु जब उनका त्रसगति का आयुष्य क्षीण हो जाता है और उसकाय की स्थिति को छोड़कर वे स्थावरकाय में जाकर उत्पन्न होते हैं तब उनमें स्थावर नामकर्म का उदय होता है और वे 'स्थावरकायिक' कहलाते हैं। इसी तरह स्थावरकाय का आयुष्य पूर्ण कर जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं तब त्रस भी कहलाते हैं, प्राण भी कहलाते हैं। उनका शरीर बड़ा होता है और आयुष्य स्थिति भी लंबी होती है।" _उदय-“आयुष्मन् गौतम ! तब तो ऐसा कोई पर्याय ही नहीं मिलेगा जो त्याज्य-हिंसा का विषय हो और जब हिंसा का कोई विषय ही नहीं रहेगा तब श्रावक किसकी हिंसा का प्रत्याख्यान करेगा? क्योंकि जीव संसारी हैं, वे सभी स्थावर मिटकर त्रस हो जाएँगे और सभी त्रस मिटकर स्थावर भी। अब यदि सब जीव त्रस मिटकर स्थावर हो जायें तो श्रमणोपासक का 'त्रसहिंसा-प्रत्याख्यान' किस प्रकार निभ सकेगा? क्योंकि जिनकी हिंसा का उसने प्रत्याख्यान किया था वे सब जीव स्थावर हो गये हैं अतः उनकी हिंसा वह टाल नहीं सकता।"
गौतम-"आयुष्मन् उदक ! हमारे मत से कभी ऐसा होता ही नहीं कि सब स्थावर त्रस अथवा सब त्रस स्थावर हो जायें। थोड़ी देर के लिये तुम्हारा कथन प्रमाण मान लिया जाय तब भी श्रमणोपासक के त्रसहिंसा-प्रत्याख्यान में बाधा नहीं आती क्योंकि स्थावर-पर्याय की हिंसा में उसका व्रत खण्डित नहीं होता और त्रस-पर्याय में वह अधिक त्रस जीवों की हिंसा को टालता है।
आर्य उदक ! अधिक त्रस जीवों की हिंसा से निवृत्त होने वाले श्रमणोपासक के लिए उसके किसी भी पर्याय की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं है' यह तुम्हारा कथन क्या उचित है ? आयुष्मन ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ प्रवचन में मतभेद खड़ा करना न्याय नहीं है।
इस समय पार्खापत्य अन्य स्थविर भी वहाँ आ गये जिन्हें देखकर गौतम ने कहा-“आर्य उदक ! लो, इस विषय में तुम्हारे स्थविर निर्ग्रन्थों को ही पूछ लें। हे आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! इस संसार में कितने ही ऐसे मनुष्य होते हैं जिनकी प्रतिज्ञा होती है कि 'जो ये अनगार साधु हैं इनको जीवन--पर्यन्त नहीं मारूँगा।' बाद में उनमें से कोई साधु चार-पाँच वर्ष या ज्यादा-कम समय विहारचर्या में रहकर फिर गृहवास में चला जाय और साधुहिंसा-प्रत्याख्यानी गृहस्थ गृहवास में रहता हुआ उस पुरुष की हिंसा करे तो क्या साधु को न मारने की उसकी प्रतिज्ञा का भंग होगा?"
निर्ग्रन्थ स्थविर-"नहीं, इससे प्रतिज्ञा-भंग न होगा?'
गौतम-“निर्ग्रन्थो ! इसी प्रकार त्रसकाय की हिंसा का त्यागी श्रमणोपासक स्थावरकाय की हिंसा करता हुआ भी अपने प्रत्याख्यान का भंग नहीं करता, यही जानना चाहिये।
हे निर्ग्रन्थो ! कोई गृहपति अथवा गृहपति-पुत्र धर्म सुन संसार से विरक्त होकर सर्वसावद्य का त्यागी श्रमण हो जाय तो उस समय वह सर्व प्रकार की हिंसा का त्यागी कहा जायेगा कि नहीं?''
निर्ग्रन्थ-“हाँ, उस समय वह सर्वथा हिंसात्यागी ही कहा जायेगा।"
गौतम–“वही साधु चार-पाँच अथवा अधिक-कम समय तक श्रामण्य-पर्याय पालकर फिर गृहस्थ हो जाय तो वह सर्वथा हिंसा-त्यागी कहा जायेगा?"
निर्ग्रन्थ-"नहीं, गृहवासी होने के बाद वह सर्वहिंसा-त्यागी श्रमण नहीं कहला सकता।"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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