Book Title: Sachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Author(s): Purushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 293
________________ जिनदेव ने राजा को आश्वासन देते हुए कहा-“राजन् ! डरने की जरूरत नहीं। मैं अपने राजा से अभी आज्ञा मँगवा लेता हूँ। तुम हमारे साथ यात्रा का कार्यक्रम बनाओ।" जिनदेव के कहने से राजा तैयार हो गया। जिनदेव ने अपने देश के राजा से आज्ञा मंगवाई। आज्ञा प्राप्त हो गई। जिनदेव और किरातराज शाहीशान से साकेत नगरी आए। किरातराज जिनदेव का अतिथि था। वह जिनदेव के घर में ठहरा। उन्हीं दिनों प्रभु महावीर जन-जन का कल्याण करते हुए शिष्य-परिवार सहित साकेत पधारे। वहाँ का राजा शत्रुजय था जो प्रभु-भक्त था। उसे जब प्रभु के पधारने की सूचना प्राप्त हुई, तो शाही ठाट के साथ प्रभु महावीर के दर्शनार्थ आया। नगर में विचित्र चहल-पहल देखकर किरातराज ने जिनदेव से पूछा- “ये सभी लोग कहाँ जा रहे हैं ?" जिनदेव-“राजन् ! आज हमारे शहर में रनों का एक बड़ा व्यापारी आया है वह अनमोल रत्न बाँटता है इसीलिए लोग उसके पास जा रहे हैं।" किरातराज-“सेठ जी ! फिर हम क्यों पीछे रहें ? हमें भी तो रत्नों की प्राप्ति करनी है। हम भी उस व्यापारी से मिलें और उत्तम रत्न प्राप्त करें।" जिनदेव और किरातराज दोनों प्रभु महावीर के दरबार में पहुँचे। भगवान महावीर का समवसरण लगा था। रत्नजड़ित सिंहासन मन को लुभा रहा था। आठ अष्ट प्रातिहार्यों को देखकर किरातराज को विस्मय हुआ। ऐसा रत्नव्यापारी उसने कभी देखा नहीं था। प्रभु महावीर का पवित्र उपदेश सुना। उपदेश सुनने के पश्चात् उसने प्रभु महावीर से रत्नों के बारे में पूछा। प्रभु महावीर ने कहा-"रत्न दो प्रकार के होते हैं-(१) द्रव्य रत्न, (२) भाव रन। द्रव्य रत्न अनेक प्रकार के हैं। पर भाव रत्न तीन प्रकार के होते हैं (१) ज्ञान रत्न, (२) दर्शन रत्न, तथा (३) चारित्र रल। भाव रत्न पर प्रभु महावीर ने प्रकाश डालते हुए बताया"यह अत्यंत प्रभावशाली रत्न और अनमोल रत्न है। जो इन रत्नों को धारण करता है उसमें यह लोक और परलोक सम्बंधी दुःखों का अंत हो जाता है।" "द्रव्य रत्न केवल इस जन्म में ही सुख देते हैं। भविष्य निर्माण के क्षेत्र में व आत्मा के कल्याण से उनका कोई सम्बंध नहीं।" प्रभु महावीर की मंगलमय वाणी का किरातराज पर सुन्दर प्रभाव पड़ा। उसने कहा-"प्रभु ! आप मुझे भाव रत्न प्रदान करें।" भगवान महावीर ने उसे जीवन का कल्याण करने वाले साधु उपकरण दिये। उस किरातराज ने प्रभु महावीर के कर-कमलों से प्रव्रज्या अंगीकार की और अब वह साधु बन गये थे।८० भगवान महावीर ने साकेत से पंचाल की ओर प्रस्थान किया। कुछ समय यहाँ के ग्रामों-नगरों में अपनी धर्मदेशना दी। फिर शूरसेन देश में आ गये। यहाँ से मथुरा, शौर्यपुर आदि में घूमते हुए पुनः विदेह देश पधार गये। प्रभु महावीर का छत्तीसवाँ चातुर्मास मिथिला में सम्पन्न हुआ। राजा गागलि द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करना प्रभु महावीर राजगृह में विराजमान थे। वहाँ से वह चम्पा पधारे। उस समय साल-महासाल मुनियों ने प्रभु महावीर से वन्दन करके कहा-“हे प्रभु ! यदि आपकी आज्ञा हो, तो हम पृष्ठ चंपा में चले जायें, जहाँ हमारा भानजा गागलि नामक राजा है। हम उसे प्रतिबोध देकर आपकी शरण में लाना चाहते हैं।" प्रभु महावीर ने गणधर गौतम को उन दोनों के साथ भेजा। राजा गागलि ने अपने मुनि बने मामा के आगमन का समाचार सुना तो वह वन्दन करने व उपदेश सुनने आया। ___ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र २३३ २३३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328