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गौतम-“वही यह जीव है जो पहले सब जीवों की हिंसा का त्यागी था, पर अब वैसा नहीं रहा क्योंकि पहले वह संयमी था पर अब असंयत है। इसी तरह त्रसकाय में से स्थावरकाय में गया हुआ जीव 'स्थावर' है 'त्रस' नहीं, यह जानना चाहिये।
निर्ग्रन्थों ! कोई परिव्राजक या परिव्राजिका अन्य मत से निकलकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रवेश करके श्रमणधर्म को स्वीकार कर निर्ग्रन्थ-मार्ग में विचरे तो उसके साथ निर्ग्रन्थ श्रमण आहार-पानी आदि का व्यवहार करेंगे?"
निर्ग्रन्थ-"हाँ, उसके साथ आहार-पानी आदि का व्यवहार करने में कोई हानि नहीं है।"
गौतम--"निर्ग्रन्थो ! यदि वह श्रमण बना हुआ परिव्राजक गृहस्थ हो जाय तो उसके साथ भोजनादि व्यवहार किया जायेगा?"
निर्ग्रन्थ-“नहीं, फिर उसके साथ वैसा कोई भी व्यवहार नहीं किया जा सकता।"
गौतम-"निर्ग्रन्थो ! वही यह जीव है जिसके साथ पहले भोजन किया जा सकता था, पर अब नहीं किया जा सकता क्योंकि पहले वह श्रमण था, पर अब वैसा नहीं है। इसी तरह त्रस में से स्थावरकाय में गया हुआ जीव त्रसहिंसा-प्रत्याख्यानी के प्रत्याख्यान का विषय नहीं है, यही समझना चाहिये।"
उपर्युक्त अनेक दृष्टान्तों से गौतम ने निर्ग्रन्थ उदय की 'त्रस मरकर स्थावर हो और वहाँ उसकी हिंसा हो तो श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान का भंग होता है' इस मान्यता का निरसन किया। ___ 'सब जीव स्थावर हो जायेंगे तब त्रस प्रत्याख्यानी का व्रत निर्विषय होगा' इस प्रकार के उदय के तर्क का खण्डन करते हुए गौतम ने कहा- “जो श्रमणोपासक देशविरति-धर्म का पालन करके अन्त में अनशनपूर्वक समाधिमरण से मरते हैं अथवा जो श्रमणोपासक प्रथम विशेष व्रत-प्रत्याख्यान का पालन नहीं कर सकते पर अन्त में अनशनपूर्वक समाधिमरण करते हैं, उनका मरण कैसा समझना चाहिये?"
निर्ग्रन्थ- "इस प्रकार का मरण प्रशंसनीय माना जाता है।''
गौतम-"जो जीव इस प्रकार के मरण से मरते हैं वे त्रसप्राणी के रूप में ही उत्पन्न होते हैं और ये ही त्रस जीव श्रमणोपासक के व्रत के विषय हो सकते हैं। बहुत से मनुष्य महालोभी, महारम्भी और परिग्रहधारी अधार्मिक होते हैं जो अपने अशुभ कर्मों से फिर अशुभ गतियों में उत्पन्न होते हैं। अनारम्भी साधु और अल्पारम्भी धार्मिक मनुष्य मरकर शुभ गतियों में जाते हैं। आरण्यक, आवसथिक, ग्रामनियंत्रिक और राहसिक आदि तापस मरकर भवान्तर में असुरों की गतियों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ से निकलकर फिर मनुष्यगति में गूंगे-बहरे मनुष्य का भव पाते हैं। दीर्घायुष्क, समायुष्क अथवा अल्पायुष्क जीव मरकर फिर नसरूप में उत्पन्न होते हैं।
उक्त सब प्रकार के जीव यहाँ 'त्रस' हैं और मरकर फिर त्रस होते हैं। ये सर्व त्रसजीव श्रमणोपासक के व्रत के विषय हैं।
कितने ही श्रमणोपासक अधिक व्रत-नियम नहीं पाल सकते, फिर भी वे 'देशावकाशिक' व्रत ग्रहण करते हैं। अमुक नियमित सीमा से बाहर जाने-आने का प्रत्याख्यान करते हैं। उनके व्रत का विषय नियमित हद के बाहर के जीव तो हैं ही, परन्तु हद के भीतर भी जो त्रस जीव हैं या त्रस मरकर फिर त्रस होते हैं अथवा स्थावर मरकर त्रस होते हैं और स्थावर जीव भी जिनकी निरर्थक हिंसा का श्रमणोपासक त्यागी होता है, श्रमणोपासक के व्रत के विषय हैं।
निर्ग्रन्थो ! यह बात कदापि नहीं हो सकती कि सब त्रस जीव मिटकर स्थावर हो जायें अथवा स्थावर मिटकर त्रस। जब संसार की स्थिति ऐसी है तो फिर कोई ऐसा पर्याय नहीं जो श्रमणोपासक के व्रत का विषय हो' यह कथन क्या उचित होगा? और ऐसी बातों को लेकर मतभेद खड़ा करना क्या न्यायानुगत है?
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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