Book Title: Sachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Author(s): Purushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti

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Page 290
________________ आयुष्मन् उदक ! मैत्री बुद्धि से भी जो श्रमण-ब्राह्मण की निन्दा करता है वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र को पाकर भी परलोक की आराधना में विघ्न डालता है। जो गुणी श्रमण-ब्राह्मण की निन्दा न करके उसको मित्र भाव से देखता है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र को पाकर परलोक का सुधार करता है। गौतम का विस्तृत विवेचन और हितवचन सुनकर निर्ग्रन्थ उदक वहाँ से चलने लगा तब गौतम ने कहा-“आयुष्मन् उदक ! विशिष्ट श्रमण-ब्राह्मण के मुख से एक भी आर्य-धार्मिक वचन सुनकर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के बल से योग-क्षेम को प्राप्त करने वाला मनुष्य उस आर्य-धार्मिक वचन के उपदेशक का देव की तरह आदर करता है।' उदक- "आयुष्मन् गौतम ! इन पदों का मुझ पहले ज्ञान नहीं था। इस कारण इस विषय में मेरा विश्वास नहीं जमा। परन्तु अब इन पदों को सुना और समझा है। अब मैं इस विषय में श्रद्धा करता हूँ।" गौतम-"आयुष्मन् उदक ! इस विषय में तुम्हें अवश्य ही श्रद्धा और रुचि लानी चाहिये।" इसके बाद निर्ग्रन्थ उदक ने चातुर्याम-धर्म परम्परा से निकलकर पाञ्चमहाव्रतिक धर्ममार्ग स्वीकार करने की अपनी इच्छा व्यक्त की और गौतम उनका अनुमोदन करते हुए अपने साथ उन्हें भगवान के पास ले गये। भगवान महावीर को विधिपूर्वक वन्दन-नमस्कार कर निर्ग्रन्थ उदक ने कहा--"भगवन् ! मैं आपके समीप चातुर्याम-धर्म से पाञ्चमहाव्रतिक धर्म में आना चाहता हूँ। महावीर ने कहा- “देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसे सुख हो, वैसा करो। इस काम में प्रतिबन्ध या प्रमाद करना योग्य नहीं।' इसके बाद निर्ग्रन्थ उदक महावीर-प्ररूपित पाश्चमहाव्रतिक सप्रतिक्रमण धर्म का स्वीकार कर महावीर के श्रमणसंघ में सम्मिलित हो गये। इस वर्ष जालि, मयालि आदि अनेक अनगारों ने विपुलाचल पर अनशन कर देह छोड़ा। वर्षा चातुर्मास नालन्दा में किया। पैंतीसवाँ वर्ष : सुदर्शन श्रेष्ठी की दीक्षा वर्षावास पूर्ण होने पर भगवान महावीर नालंदा से विहार कर अनेक क्षेत्रों को पावन करते हुए वैशाली के सन्निकट वाणिज्यग्राम पधारे। यह व्यापार का मुख्य-प्रमुख केन्द्र था। सुदर्शन सेठ वहाँ का एक प्रमुख व्यापारी था। प्रभु महावीर के आगमन का समाचार सुनकर वह प्रभु महावीर के दर्शन करने आया। उसने प्रवचन सुना। प्रवचन के बाद उसने जो प्रश्न किये उससे उसके तत्त्वों के प्रति ज्ञान का पता चलता है। उसने प्रभु महावीर को वन्दन करते ही प्रश्न किया-"भगवन् ! काल कितने प्रकार का है ?" प्रभु महावीर-“सुदर्शन ! काल चार प्रकार का है-(१) प्रमाण काल, (२) यथायुनिर्वृत्ति काल, (३) मरण काल तथा (४) अद्धा काल।" सुदर्शन-“भगवन् ! प्रमाण काल कितने प्रकार का है?' प्रभु महावीर-“यह दिवस प्रमाण काल और रात्रि प्रमाण काल के रूप में दो प्रकार का है। चार-चार पोरसी की दिन व रात्रि होती है। अधिक से अधिक साढ़े चार मुहूर्त की पोरसी और न्यून से न्यून तीन मुहूर्त की पोरसी होती है। सुदर्शन-“प्रभु ! कौन से दिन या रात्रि में साढ़े चार मुहूर्त की उत्कृष्ट पोरसी होती है और कब जघन्य पोरसी होती __ प्रभु महावीर-“आषाढ़ पूर्णिमा को अठारह मुहूर्त का दिन होता है और बारह मुहूर्त की रात होती है। पौष पूर्णिमा को चौदह मुहूर्त की रात होती है और बारह मुहूर्त का दिन होता है।" २३० सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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