Book Title: Sachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Author(s): Purushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
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पहले दिन ८४ लाख योद्धा मारे गये । द्वितीय दिन रथमूसल की विकुर्वणा की गई। देव-निर्मित रथ पर चमरेन्द्र स्वयं आसीन हुआ। वह मूसल से चारों तरफ प्रहार करने लगा । ५९ दूसरे दिन भी लाखों मनुष्य मारे गये ।
इस युद्ध में राजा चेटक नौ मल्ल, नौ लिच्छवी, काशी कोशल के गणराजाओं की पराजय हुई। कोणिक ने विजयध्वजा फहरा दी । ६०
राजा चेटक पराजित होकर वैशाली में चला गया। महल के द्वार बंद कर दिये। कोणिक किसी भी तरह इन कपाट को तोड़ न सका। तभी आकाशवाणी हुई- “ श्रमण कूलबालक, ६१ जब मागधिका वेश्या से अनुरक्त होगा, तब राजा अशोक चन्द कूणिक वैशाली को अधिग्रहण करेगा । कूणिक ने कूलबालक साधु व मागधिका की वेश्या को बुलाया। मागधिका ने श्राविका का वेश बनाया और कूलबालक मुनि को अपने जाल में फँसा लिया।
कूलबालक नैमित्तिक का वेश धारण कर किसी तरह वैशाली पहुँचा । उसे पता था कि जब तक वैशाली में मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप विद्यमान है इस नगरी का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
नागरिकों ने शत्रु संकट का उपाय पूछा। नैमित्तिक बने मुनि ने कहा- "जब तक यह स्तूप नहीं तोड़ा जायेगा, शत्रु नहीं हटेगा। लोगों ने स्तूप को तोड़ डाला। स्तूप टूटते ही कूणिक ने वैशाली पर आक्रमण कर वैशाली को नष्ट कर दिया । ६२
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हार, हाथी को लेकर हल्ल और विहल्ल शत्रु से बचने के लिए वैशाली से भागे । प्राकार की खाई में आग लगी थी । हाथी सेचनक को विभंगज्ञान हुआ था जिस कारण वह आगे न बढ़ा। जब उसे आगे बढ़ाने की कोशिश की गई, तो उसने अपनी सूड़ से हल्ल-विहल्ल को नीचे उतार दिया। सेचनक हाथी ने उस अग्नि में स्वयं प्रवेश कर लिया था। शुभ अध्यवसाय से आयु पूर्ण कर वह हाथी प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुआ।
देव- प्रदत्त हार को देवताओं ने ग्रहण कर लिया। शासन देव ने अपनी शक्ति से हल्ल और विहल्ल को भगवान महावीर के पास मिथिला के पास पहुँचा दिया। प्रभु महावीर का उपदेश सुनकर उन दोनों को वैराग्य हो गया। वह प्रभु महावीर के शिष्य बन गये । ६३
इस संग्राम का वर्णन प्रभु महावीर ने स्वयं भगवतीसूत्र में करते हुए एक प्रश्न का स्पष्टीकरण किया है। वह प्रश्न है कि क्या युद्ध में मरने वाले सभी स्वर्ग में जाते हैं ?
प्रभु महावीर का उत्तर था-"सभी युद्ध में मरने वाले स्वर्ग या नरक में नहीं जाते। स्वर्ग-नरक हर व्यक्ति के किये कर्म के फलानुसार प्राप्त होता है, युद्ध का इससे कोई संबंध नहीं है।"
अट्ठाईसवाँ वर्ष
भगवान कोशल भूमि में विचरते हुए पश्चिम की ओर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। इसी बीच में इन्द्रभूति गौतम अपने शिष्यगण के साथ आगे निकलकर श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में जा ठहरे । ६४
उन दिनों पार्श्वापत्य केशीकुमार श्रमण भी अपने शिष्यगण सहित श्रावस्ती के तिन्दुकोद्यान में आए हुए
थे।
दोनों स्थविरों के शिष्य एक-दूसरे समुदाय में आचार - भिन्नता देखकर सोचने लगे- 'यह धर्म कैसा और वह कैसा ? यह आचार-व्यवस्था कैसी और वह कैसी ? महामुनि पार्श्वनाथ का धर्म चातुर्याम और वर्धमान का पंचशिक्षात्मक, एक धर्म सचेलक और दूसरा अचेलक ? मोक्ष-प्राप्तिरूप एक ही कार्य की साधना में प्रवृत्त होने वालों के धर्म तथा आचार मार्ग में इस प्रकार विभेद होने का क्या कारण होगा ? अपने शिष्यगणों में चर्चास्पद बनी हुई बातें केशी और गौतम ने सुनीं और परस्पर मिलकर इनका समाधान करने का उन्होंने निश्चय किया।
गौतम ने यह समझकर कि कुमार श्रमण केशी वृद्ध कुल के पुरुष हैं, अपने शिष्य समुदाय के साथ केशी के स्थान पर तिन्दुकोद्यान में गये ।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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