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पौधे, झाड़-झंखाड़, उखाड़ - उखाड़कर जंगल को बिल्कुल साफ कर दिया। कहीं घास का तिनका न छोड़ा। इस प्रकार विराट् मण्डल का निर्माण कर सुमेरुप्रभ आनन्द से रहने लगा। अब वह भविष्य के प्रति निश्चिंत था।
एक समय की बात है कि जंगल में पुनः दावानल सुलग उठा। जंगल के सभी जीव-जन्तु अपना जन्मजात वैर भुलाकर उस मण्डल में एकत्रित होने लगे। हाथी, सिंह, मृग, खरगोश, लोमड़ी सभी को अपनी जान बचाने की चिन्ता थी। सुमेरुप्रभ भी वहाँ आ पहुँचा। पर उसका अपना बनाया मण्डल अब अन्य जीवों से भर चुका था । वह एक किनारे खड़ा हो गया। उसने किसी भी प्राणी को कोई कष्ट नहीं पहुँचाया।
दावानल जलता रहा; हरा-भरा वन भस्म होता रहा। एक प्रलयकारी दृश्य सामने था । पर सुमेरुप्रभ का बनाया मण्डल पूर्ण सुरक्षित था। उसे एक ज्वाला भी स्पर्श न कर सकी थी।
उस समय अचानक सुमेरुप्रभ हाथी के खुजली होने लगी। उसने अपने आगे का पाँव खुजलाने के लिए ऊपर उठाया। ज्यों ही खुजलाकर पैर को पुनः नीचे रखने लगा तो उसने देखा एक नन्हा सा खरगोश मृत्यु के भय से थरथर काँप रहा है। काँपते हुए खरगोश को देखकर सुमेरुप्रभ हाथी के मन में करुणा आ गई। उसने इसी करुणावश अपना पैर ऊपर उठाये रखा, पैर नीचे नहीं रखा। खरगोश का बच्चा इस पाँव के नीचे वाले स्थान में शरण लिए हुए था। हाथी का पाँव अधर में लटक रहा था ।
दो दिन तक जंगल जलता रहा। तीसरे दिन आग शान्त हुई। सभी जानवर अपने-अपने स्थानों की ओर लौटने लगे। खरगोश का बच्चा भी लौट रहा था। सुमेरुप्रभ ने नीचे देखा तो स्थान को खाली समझकर जाने की तैयारी करने लगा। उसने पाँव को सीधा जमीन पर रखना चाहा, पर पाँव जमीन पर न टिका । पाँव अकड़ चुका था। अब हाथी ने जोर देकर रखना चाहा, तो भारी शरीर के कारण सँभल न सका और भूमि पर गिर गया।
तीन दिन की भूख-प्यास के कारण वह पुनः न उठ सका। पर इस हाल में भी उसके मन में अपूर्व शान्ति थी, क्योंकि उसने एक छोटे-से जीव पर दया की थी ।
प्रभु महावीर ने मेघ के पूर्वभव की सारी कथा सुना दी। फिर उन्होंने निष्कर्ष करते हुए फरमाया- “पूर्वभव में खरगोश पर करुणा करने वाले हाथी तुम थे । पशु के भव में करुणा के कारण तुम्हें राज्य - परिवार का सुख-वैभव मिला । निर्ग्रन्थ प्रवचन सुनने को मिला। संयममार्ग की मामूली-सी बाधा से घबरा गये हो ।"
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प्रभु महावीर के उपदेश से मेघ मुनि पुनः जागृत हो गये और अब संयम-पथ पर पुनः बढ़ने लगे । लम्बे समय तक तप व साधना की। जिसके परिणामस्वरूप विजय नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए । '
महायोगी नन्दीषेण
यह भी राजा श्रेणिक के पुत्र थे । भगवान महावीर के उपदेश से इनके मन में वैराग्य भावना जागृत हो गयी । पिता राजा श्रेणिक ने इन्हें मुनि बनने की आज्ञा प्रदान कर दी ।
अभी
परन्तु जब यह मुनि बन रहे थे तो आकाशवाणी हुई- " नन्दीषेण ! अभी तुम्हारे मुनि बनने का समय नहीं आया । तुम्हारा भोगावली कर्म शेष है।"
नन्दीषेण का इरादा दृढ़ था । उसे दूसरी भी देववाणी ने रोका। पर नन्दीषेण भावना के प्रवाह में बह रहे थे । देववाणी सुनकर उन्होंने कोई परवाह नहीं की। अपने पूर्व फैसले को ध्यान में रखकर वह मुनि बन गये ।
अब राजकुमार नन्दीषेण मुनि बनकर साधना करने लगे । वह देवता की वाणी को गलत सिद्ध करने के लिए तप करने लगे जिसके प्रभाव से वह अनेक ऋद्धि-सिद्धियों के स्वामी हो गये ।
पर होनी प्रबल है। यह कब, किस रूप में रंग दिखाये इसे व्यक्ति नहीं जान पाता। एक दिन मुनि नन्दीषेण गोचरी को गये हुए थे। नगर में भोजन के लिए घूम रहे थे । शुद्ध भोजन की तलाश में उन्होंने एक बड़ा भवन देखा, फिर
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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