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छब्बीसवाँ वर्ष
चम्पा से भगवान महावीर ने विदेहभूमि की ओर विहार किया । वहाँ के गाथापति धृतिधर क्षेमक ने संयम ग्रहण किया । क्षेम और धृतिधर ने १६ वर्ष संयम का पालन कर विपुल पर्वत पर अनशन द्वारा सिद्ध गति प्राप्त की । ५४
चातुर्मास के बाद प्रभु महावीर अंग देश पधारे। राजा श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र कोणिक राजा बना। इन दिनों वैशाली युद्ध-स्थल बन चुकी थी। एक तरफ मगध का सम्राट् कोणिक और उसके दस सौतेले भाई थे। सभी अपनी विशाल सेना के साथ वैशाली की रणभूमि में पहुँचे हुए थे। दूसरी ओर वैशाली गणराज्य प्रमुख चेटक थे। इनके साथ काशी, कोशल देश के १८ गणराजा अपनी विशाल सेनाओं के साथ आये हुए थे । झगड़े का कारण हाथी और एक हार था। ये दोनों वस्तुएँ राजा श्रेणिक ने अपने जीवनकाल में हल्ल - विहल्लकुमार को दी थीं । राजा कोणिक की रानी पद्मावती दोनों वस्तुएँ स्वयं चाहती थी । कोणिक ने दोनों वस्तुएँ माँगीं । विहल्लकुमार ने इंकार कर दिया। उसने चम्पा में रहना ठीक न समझा। दोनों वस्तुओं और परिवार के साथ वह राजा चेटक की शरण में आ गया। राजा चेटक के पास कोणिक ने पुनः दूत भेजकर दोनों वस्तुएँ माँगी। राजा चेटक श्रमणोपासक श्रावक थे। उन्होंने शरणागत की रक्षा के लिये कोणिक राजा के युद्ध की चुनौती को स्वीकार किया । वैशाली में घमासान युद्ध होने लगा जिसे जैन इतिहास में रथ - मूसल संग्राम का नाम दिया है।
इस युद्ध में कालकुमार आदि दस भाई काम आये । लड़ाई चल रही थी । विनाश जोरों पर था ।
इस मध्य प्रभु महावीर चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे। नागरिक जब प्रभु महावीर के दर्शन करने आये, उन नागरिकों में १० कुमारों की माताएँ शामिल थीं। राजमाताओं ने प्रभु महावीर से पूछा - "भगवन् ! कालकुमार आदि लड़ाई में आये हैं। क्या वे सकुशल वापस लौटेंगे ?"
भगवान ने उत्तर दिया-“आपके पुत्र तो युद्ध क्षेत्र में मारे गये हैं ?"
भगवान महावीर ने रानियों को वैराग्य उपदेश के माध्यम से सांत्वना दी। संसार की असारता समझाई। सभी रानियों ने प्रभु दीक्षा ग्रहण कर श्रमणी संघ में प्रवेश किया।
सत्ताईसवाँ वर्ष
यह वर्ष प्रभु महावीर के जीवन का महत्त्वपूर्ण वर्ष था। प्रभु महावीर चम्पा में कुछ समय धर्म-प्रचार करने के पश्चात् पुनः मिथिला पधारे। यह वर्षावास भी मिथिला में सम्पन्न हुआ। अनेक भव्यात्माओं ने श्रावकधर्म व मुनिधर्म को स्वीकार किया।
प्रभु महावीर ग्राम-ग्राम धर्म- ध्वज फहराते हुए वैशाली पधारे। फिर श्रावस्ती की तरफ विहार किया। उन्हीं दिनों कोणिक के दो भ्राता हल्ल-विहल्ल जो वैशाली के विनाश का कारण बन रहे थे, किसी तरह संघर्ष से जान बचाकर मुनि बन गये ।
गोशालक का उपद्रव
भगवान महावीर श्रावस्ती के कोष्टक उद्यान में पधारे। उन्हीं दिनों मंखलिपुत्र गोशालक भी नगर में अपने शिष्यों के साथ आया हुआ था। वह स्वयं को जिन, केवली, तीर्थंकर व सर्वज्ञ कहता था । गोशालक जीवन के प्रारम्भिक वर्षों
में प्रभु महावीर का शिष्य बनकर साथ रहा था । उसने प्रभु महावीर से तेजोलेश्या सीखी। फिर उसने निमित्त शास्त्र में स्वयं को प्रसिद्ध किया । इन दो कारणों से वह स्वयं तीर्थंकर कहलाने लगा ।
श्रावस्ती नगरी में गोशालक के दो परम भक्त थे । एक थी हालाहला कुम्हारिन और दूसरा अयंपुल गाथापति । गोशालक जब भी श्रावस्ती आता तो वह हालाहला की भाण्डशाला में ठहरता। दोनों सम्पन्न व प्रसिद्ध थे । गोशालक पहले
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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