________________
तो प्रभु महावीर का स्वयं शिष्य बना था। फिर छह वर्ष तक साथ रहकर प्रभु महावीर के लिये मुसीबतें खड़ी करता रहा। फिर वह १८ वर्ष से प्रभु महावीर से अलग विचर रहा था। वह स्वयं को आजीवक मत का आचार्य कहता था। गोशालक पहले से ही यहाँ चातुर्मास के लिये ठहरा हुआ था। चातुर्मास पूरा होने के बाद भी वह यहाँ टिका हुआ था। नगरचर्चा
एक दिन भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति भिक्षार्थ नगर में आये। उन्होंने श्रावस्ती नगरी के चौराहों पर यह जनचर्चा सुनी-“आजकल इस नगर में दो जिन विचरण कर रहे हैं, दोनों अपने को तीर्थंकर, सर्वज्ञ, केवली बताते हैं। एक हैं भगवान महावीर व दूसरा मंखलिपुत्र गोशालक।"
गणधर गौतम ने प्रभु महावीर से नगर में फैली जनचर्चा के बारे में बताया। प्रभु महावीर ने गणधर गौतम को गोशालक के बारे में बताते हुए कहा-“गोशालक कोई जिन, सर्वज्ञ, केवली या तीर्थंकर नहीं है। यह तो मेरा पूर्व-शिष्य है। यह तेजोलेश्या की आराधना द्वारा कुछ शक्ति का धारक है। पर यह छद्मस्थ है। कुछ नैमित्तक शास्त्र का भी ज्ञाता है।"
गणधर गौतम ने प्रभु महावीर की बातों को ध्यान से सुना। गोशालक की आनन्द से चर्चा
प्रभु महावीर का एक शिष्य आनन्द नामक अनगार भिक्षा के लिये नगर में घूम रहा था। वह अचानक हालाहला कुम्हारिन के घर के पास से निकला। गोशालक अपने शिष्यों सहित वहाँ ठहरा हुआ था। उसने प्रभु महावीर के इस शिष्य को देखा। गोशालक उन्हें बोला-"देवानुप्रिय ! जरा ठहर और एक बात कहता हूँ उसे ध्यान से सुन। तुम्हारे धर्माचार्य की स्थिति इन लोभी व्यापारियों जैसी है जिनकी कथा मैं तुम्हें सुनाता हूँ
पूर्व समय की बात है एक नगर में रहने वाले कुछ व्यापारियों ने किराने का माल भरा। वह गाड़ी भरकर प्रदेश में चले गये। रास्ते में भयंकर जंगल आया। व्यापारी उसे पार करने लगे, जंगल था कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। मार्ग में ग्रामरहित, निर्जल, दीर्घ अटवी में वे व्यापारी प्रविष्ट हुए। पानी समाप्त हो चुका था। पानी की तलाश में व्यापारी भटकने लगे। ___ अचानक उन भटकते व्यापारियों की दृष्टि एक विशाल वल्मीक पर पड़ी। उसके ऊँचे-ऊँचे चार शिखर थे। व्यापारियों ने प्रथम शिखर फोड़ा। जहाँ स्वच्छ जल प्राप्त हुआ। सभी ने पानी पिया; बैलों को पिलाया। मार्ग में उपयोग के लिये भी बर्तनों में भरा। फिर व्यापारियों के मन में अन्य शिखरों के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हुई।
उन्होंने दूसरा शिखर फोड़ा, तो उसमें से विपुल स्वर्ण-राशि मिली। व्यापारियों का लोभ बढ़ता गया। उन्होंने तीसरा शिखर फोड़ा। उसमें अमूल्य मणिरत्न प्राप्त हुये। अब चौथा शिखर बाकी था। सभी व्यापारियों की उसे तोड़ने की तीव्र अभिलाषा थी। उन्हें विश्वास था कि इस शिखर को फोड़ने से अमूल्य वज्र रत्न प्राप्त होंगे। पर एक वृद्ध व्यापारी ने उन सभी व्यापारियों को ऐसा करने से रोकते हुए कहा-"चतुर्थ शिखर नहीं फोड़ना चाहिये, क्योंकि यह हमारे लिये संकट का कारण हो सकता है।"
पर व्यापारियों की लोभवृत्ति इतनी प्रबल हो चुकी थी कि उन्होंने उस संतोषी व्यापारी की बात नहीं मानी। उन्होंने चौथा शिखर फोड़ा। उसमें से दृष्टि-विष साँप निकला। उसने सबको क्रोध भरी आँखों से देखा। साँप की दृष्टि पड़ते ही सब व्यापारी जलकर भस्म हो गये। केवल वही व्यापारी बच पाया जिसने चौथा शिखर फोड़ने को मना किया था।
"हे देवानुप्रिय ! तुम्हारे धर्माचार्य और धर्म-गुरु श्रमण ज्ञातपुत्र ने श्रेष्ठ अवस्था प्राप्त की है। देव और मनुष्यादि में उनकी यश व कीर्ति फैली हुई है। अगर वह मेरे विरोध में कुछ भी कहेंगे तो मैं अपने तप-तेज से उन्हें भस्म कर दूंगा।"
गोशालक की धमकी से आनन्द मुनि बहुत भयभीत हो गया। उसने प्रभु महावीर से सारा घटना-क्रम बताया।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
१९९
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org