________________
अग्निभूति - "भंते ! ठीक है । दृश्य जगत् को 'पुरुषमात्र' मानने से प्रत्यक्ष के अनुभव का निर्वाह नहीं हो सकता । परन्तु, जड़ तथा रूप कर्म द्रव्य चेतना तथा अरूपी आत्मा के साथ कैसे संबंध हो सकता है और अच्छा-बुरा असर कैसे डाल सकता है ?"
प्रभु महावीर - "जिस प्रकार अरूपी आकाश के साथ रूपी द्रव्यों का सम्पर्क होता है उसी तरह अरूपी आत्मा का रूपी कर्मों के साथ संबंध होता है। जैसे मदिरा बुरा असर डालती है, ब्राह्मी औषधि शुभ। उसी तरह अरूपी चेतन आत्मारूपी जड़ चेतन पर भला-बुरा असर डालते हैं ।"
संसार में हम जो विभिन्नताएँ देखते हैं । सुख - दुःख देखते हैं उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है। तुम कर्म को प्रत्यक्ष नहीं देख सकते किन्तु अनुमान से सिद्ध कर सकते हो । सुख-दुःख रूप कर्मफल को तुम प्रत्यक्ष देख रहे हो। उससे उसके कारण रूप कर्म का अनुमान भी किया जा सकता है। सुख-दुःख का कोई अवश्य कारण होना चाहिये। चूँकि वह कार्य है, जिस प्रकार अंकुर रूप कार्य का हेतु बीज है उसी प्रकार सुख-दुःख रूप कार्य का जो हेतु है वह कर्म है । ६
दृष्ट कारण में जो व्यभिचार दिखाई देता है अतः अदृष्ट कारण मानना जरूरी है क्योंकि सुख-दुःख के दृष्ट कारणों के समान रूप से रहने पर उनके कार्य में जो तारतम्य दिखाई देता है वह निष्कारण नहीं हो सकता। इसका जो कारण है वही कर्म है । ७
हम जो भी दान आदि क्रिया करते हैं उसका कोई फल अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह सचेतन व्यक्ति कृत क्रिया है जिस प्रकार खेती, दान आदि क्रिया का जो फल है वही कर्म है।
अग्निभूति, क्या तुम नहीं जानते कि मन की शांति भी एक प्रकार की क्रिया ही है। इसलिए सचेतन को अन्य क्रियाओं के समान ही उसका भी मानना कर्मफल है। इससे सुख-दुःख आगे चलकर पुनः हमारे अनुभव में आते हैं।
स्थूल शरीर भूत है पर उसका आत्मा से संबंध प्रत्यक्ष देखते हैं। इसी तरह एक भव से दूसरे भव में जाते हुए जीव का कार्मण शरीर से संबंध होना ही चाहिये, नहीं तो नवीन स्थूल शरीर ग्रहण कदापि संभव नहीं है । "
अग्निभूति ने कहा- "यदि ईश्वरादि को जगत् वैचित्र्य का कारण मान लें तो कर्म की आवश्यकता नहीं है ?"
प्रभु महावीर ने इसका समाधान करते हुए कहा - "कर्म की संज्ञा मानकर मात्र शुद्ध जीव को ही देह आदि की विचित्रता का कर्त्ता माना जाए या ईश्वर आदि को इसका कर्त्ता निर्माता माना जाये तो हमारी पूर्वकथित सभी मान्यताएँ असंगत सिद्ध होंगी, क्योंकि शुद्ध जीव या ईश्वर आदि को कर्म साधन की अपेक्षा नहीं है । वह शरीरादि का आरम्भ ही नहीं कर सकता। चूँकि उसके पास आवश्यक उपकरणों का अभाव है। जिस प्रकार कुम्हार बिना डंडे के चाक नहीं घुमा सकता, न ही बर्तन का निर्माण कर सकता है उसी प्रकार ईश्वर कर्म आदि साधनों के अभाव में शरीर आदि (निर्माण नहीं कर सकता) इसी तरह निश्चेष्ट, अमूर्त्तता आदि हेतुओं से ईश्वर के कर्त्ता का खण्डन होता है ।
इस प्रकार प्रभु महावीर ने अग्निभूति के पहले संशय का निवारण किया। उसे श्रुति वाक्य के अर्थ का ठीक ज्ञान कराया। फिर इसे जैनधर्म के अनुसार कर्म के अस्तित्त्व को सरल ढंग से समझाया।
अग्निभूति भी अपने बड़े भ्राता इन्द्रभूति की तरह प्रभु महावीर के आगे समर्पित हो गये। अपने विद्यार्थी परिवार सहित महावीर से दीक्षा ग्रहण की। जब इन्द्रभूति व अग्निभूति के साधु बनने की सूचना यज्ञ मंडप में पहुँची, वायुभूति तत्क्षण प्रभु महावीर के समवसरण में पहुँचे। वह जब चले तो सोचने लगे-'पता नहीं ! क्या बात है ? उस वेद विरोधी श्रमण में जिसने मेरे दोनों भ्राताओं को अपना शिष्य बना लिया है। लगता है, जरूर उसके पास कुछ सत्य है। मेरे भ्राता इतने अज्ञानी तो नहीं हैं। अगर वह मेरी शंका दूर कर सका, तो मैं भी उनका शिष्य बन जाऊगाँ ? वह भी प्रभु महावीर के ज्ञान-वैराग्य की परीक्षा लेने महासेन उद्यान में पहुँच गये।
११८
Jain Educationa International
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org