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ANANAMA
श्रीमवचनसार भाषाटीका । ' . [ २५
mamermaina भावार्थ-यहां आचार्यने यह दिखलाया है कि चारित्र, धर्म, साम्यमाव यह सब एक भावको ही प्रगट करते हैं । निश्चयसे दर्शनमोह और चारित्र मोह रहित तथा सम्यग्दर्शन और बीतरागता सहित जो आत्माका निज भाव है वही साम्यभाव है अर्थात् मात्मा. जव सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र रूप परिणमन करता है तब जो भाव स्वात्मा सम्बन्धी होता है उसे ही समताभाष, या शांत भाव कहते हैं ऐसा नो शांत भाव है वही संसारसे उद्धार करने वाला धर्म है तथा यही वीतराग चारित्र है जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती है। इस गाथामें भी भाचार्यने स्वात्मानुभव अथवा स्वरूपाचरण चारित्रकी ही ओर लक्ष्य दिलाया है और यही प्रेरणा की गई है कि जैसे हमने इप्त मानन्द धामका माश्रय किया है वैसे सव जन ईस ही स्वात्मानुभवका आश्रय करो यही साक्षात् सुखका मार्ग है। __उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अभेद नयसे इस वीत. राग भांवररूपी धर्ममें परिणमन करता हुआ आत्मा ही धर्म है। परिणदि जेण दवं, तझालं तस्मयत्ति पण्णत्तं । सम्हा धम्मपरिणदो, आदा धम्मो मुणेपब्बो ॥८
परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्राप्तम् । तस्मादपरिणत आत्मा धर्मो मन्तव्यः ॥ ८ ॥
सामान्यार्थ-यह द्रव्य मिस कालमें जिस भावसे परि. णमन करता है उस कालमें वह द्रव्य उस भावसे तन्मयी होता है ऐसा कहा गया है । इसलिये धर्म भावसे परिणमन करता हुआ.मात्मा धर्म रूप ही माना जाना चाहिये।