Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 357
________________ oawwwwwwwwwwwwwww ३१८] श्रीमवचनसार भाषाटीका । अन्वय सहित विशेषार्थ-( निणसत्थादो ) जिन शास्त्रकी निकटतासे ( अटे) शुद्ध मात्मा आदि पदार्थीको (पञ्च. क्खादीहिं) प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंके द्वारा (बुज्झदो) जाननेवाले जीवके (णियमा) नियमसे ( मोहोवच्यो ) मिथ्या अभिप्रायके संस्कारको करनेवाला मोहका समूह (खीयदि) क्षय होजता है (ताहा) इसलिये (सत्यं समधिव्वं) शास्त्रको अच्छी तरह पढ़ना चाहिये विशेष यह है कि कोई भव्य जीव वीतराग सर्वज्ञसे कहे हुए शास्त्रसे " एगो मे सत्सदो अप्पा" इत्यादि परमात्माके उपदेशक शुतज्ञानके द्वारा प्रथम ही अपने आत्माके स्वरूपको जागता है, फिर विशेष अभ्यासके बशसे परम समाधिक कालमें रागादि विकल्पोंसे रहित मानस प्रत्यक्षसे उस हो आत्माका अनु. भव करता है । तैसे ही अनुमानसे भी निश्चय करता है । से इस ही देहमें निश्चय नयसे शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा है क्योंकि विकार रहित स्वसंवेदन प्रत्यक्षरो वह हम ही तरह जाना जाता है जिस तरह मुख दुःख आदि । तैसे ही अन्य भी पदार्थ यथासंभव आगमसे व अभ्याससे उत्पन्न प्रत्यक्षसे वा अमानसे जाने जासत है । इसलिये मोक्षके अर्थी पुरुषको भागमका अभ्यास करना चाहिये, यह तात्पर्य है। . भावार्थ-यहां भाचार्थने अनादि मोहके क्षपका परम्परा अत्यन्त आवश्यक उपाय जिनवाणीका अभ्यास बताया है। नीवादि पदार्टीका यथार्थ ज्ञान हुए विना उनका शृद्धान नहीं हो सका, श्रद्धान बिना मनन नहीं होप्तका, मनन विना हह संस्कार नहीं हो सका, दृढ़ संस्कारफे बिना स्वात्माका अनुभव नहीं हो

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