Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 386
________________ www wwwww श्रीप्रवचनसार भापाटीका। [३६७ गया है । उनके तथा अन्य जीवोंके पुण्य कर्मके उदयसे विना इच्छाक ही प्रभुको वणी खिरती है व उपदेशार्थ विहार होता है । केवलज्ञानीके अतींद्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष दोता है जिसकी महिमा वचन अगोचर है, उस ज्ञानमें सर्व मानने योग्य सर्व द्रव्योंके सर्व गुण पर्याय एक समयमें विना विसी क्रमके झझकते हैं। उनको जाननेके लिये किसी तरहका खेद नहीं करना पड़ता है और न इंद्रियोंकी सहायता ही लेनी पड़ती है, कोई आकुलता ही होतो है-वह केवलज्ञानी पूर्णपने निराकुल रहते हैं-उनका ज्ञान यद्यपि प्रदेशोंकी अपेक्षा आत्माके ही भीतर है परन्तु सर्व जाननेकी अपेक्षा सर्व गत या सर्वव्यापी है । इसी सर्वव्यापी ज्ञानकी अपेक्षासे केवली भगवानको भी सर्वव्यापी कह सके हैं। केवली महाराजके अनंत सुख भी अपूर्व है जिसमें कोई पराधीनता, विसमता व क्षणभंगुरता व अन्तपना नहीं है। वह सुख प्रत्यक्ष आत्माका स्वभाव है, इन्द्रियों के द्वारा सुख यास्तवमें दुख है क्योंकि दुःखोंके कारण कर्माको बांधनेवाला है, पराधीन है, अतृप्तिकारी है, क्षणभंगुर है और नाश सहित है। केवली महारान प्रत्यक्ष ज्ञान व सुखके भंडार हैं । शुद्धोपयोगके फलसे केवली परमात्मा हो फिर शेष फर्म नाशकर सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। यह शुद्धोपयोग श्रुतज्ञान द्वारा प्राप्त होता है । श्रुतज्ञान शास्त्रों के द्वारा वैसा ही पदार्थोका स्वरूप जानता है जैसा फेवली महाराज मानते हैं अंतर मात्र परोक्ष या प्रत्यक्षका है । तथा परोक्ष श्रुतज्ञान अपूर्ण है अस्पष्ट है जब कि केवलज्ञान पूर्ण और स्पष्ट है तथापि

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