Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 387
________________ ammmmwww ३६८] अप्रिवचनसार भापाटीका । आत्मा और अनात्माका स्वरूप असे केवलज्ञानी जानते हैं वैसा ही श्रुतज्ञानी जानते हैं। इसी यथार्थ ागम ज्ञानके द्वारा भेद विज्ञान होता है तब अपने मात्माका सर्व मन्य द्रव्योंसे टथक पनेका निश्चय होता है, ऐसा निश्चय कर नव कोई भागममें कुशलता रखता हुआ मोहके कारणोंको त्यागकर निग्रंथ हो अपने उपयोगको शुद्धात्माके सन्मुख करता है तब वह निश्चय रत्नत्रयकी एकता रूप शुद्धोपयोगको पाता है । यह आत्मा कूटस्थ नहीं है किंतु परिणमनशील है। जब यह शुद्ध भावमें न परिणमन करके रागद्वेष मोह रूप परिणमन करती है तब इसके कर्मोशा बंध होता है, जिस बन्धसे यह जीव संसारसागरमें गोता लगाता हुआ चारों गतियों में महादुःखको प्राप्त होता है, इसलिये आचा- . यने शिक्षा दी है कि मोहका नाश करके फिर रागद्वेषका क्षय करना चाहिये। जिसके लिये जिग भागमके अभ्यासको बहुत ही उपयोगी बताया है और वारवार प्रेरणा की है कि जो मोक्षका स्वाधीन सुख प्राप्त करना चाहता है उसको शास्त्र का पठन ब मनन अच्छी तरह करके छः द्रव्यांक सामान्य व विशेष स्वभावों को अलग २ पहचानना चाहिये । और फिर निज मात्माका स्वभाव भिन्न देखकर उसको पृथक् मनन करना व उसका ध्यान करना चाहिये । आत्मध्यान ही रागद्वेष मोहका विलय करने वाला है। __ स्वामीने यह भी बताया है कि मात्मामें सुख स्वभावसे ही है । नो सुख इंद्रियों के द्वारा मालूम होता है वह भी अपनी - कल्पनासे रागके कारणले भोगनेमें भाता है। शरीर व विषयके

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