Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 355
________________ NAM RANAMms ३३६] श्रीप्रवचनसार भापार्टीका । भावार्थ-अत्यन्त आत्मासे भिन्न इस अप्सार नाशवंत, तथा दुःखोंके बोझसे भारी शरीरमें नो विचारे मोही जीव हैं के ही रमण करते हैं यह बड़े खेदकी बात है। हे भाई, यदि तेरी बुद्धि आत्माके विकल्प रहित शुद्ध स्वभावमें ठहर जावे तो तू संसारके अन्तको पाकर अविनाशी मोक्ष धामका स्वामी हो जावे । तात्पर्य यह है कि मोहके नाशके लिये निम आत्माका मनन ही कार्यकारी है। और भी वही कहा है:इदागदपतिरम्प नेदमित्यादिभेदाद्विदधति पदमेते रागरोषादयस्ते ॥ तदलयालमेकं लिप्कलं निष्क्रिधरसन् । भज मनसि समाधेः सत्फलं येन नित्यम् ।। ६६ ।। भाव यह है कि यह चीज अति रमणीक है, यह चीज रमणीक नहीं हैं इत्यादि भेद करके ये राग द्वेषादि अपना पद स्थापन करते हैं इससे कुछ कार्यकी सिद्धि नहीं होती इमलिये सर्व क्रियाकांडोंसे निवृत्त होकर शरीर रहित तथा निर्मल एक मात्माको मनन करो, इसोले तु सगाधिज्ञ अविनाशी सच्चा फल भोगेगा। यहां इतना और जानना चाहिये कि गाथामें जो करुणाभाव शब्द है व जिसका दूसरा अर्थ वृत्तिकारने दयाका अभाव किया है, हमारी सम्मतिमें मूलक का यही माव ठीक मालूम होता है कि जो मिथ्यादृष्टी होता है उसका लक्षण अनुकम्पाका अभाव है । क्योंकि सम्यग्दृष्टीके चार चिन्ह शास्त्रमें कहे हैं अर्थात प्रशम, सम्वेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य । ये ही

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