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४८] श्रीप्रवचनसार भाषाका । जरक, तिर्यश्च आयुको नहीं बांधता, न वह स्त्री नपुंसक होता है नदीन दुःखी दलिद्री मनुष्य न हीन देव होता है । मिथ्यादृष्टीके जप, तप दानादिको उपचारसे शुर्म कहा जाता है। वास्तवमें वह शुभ नहीं है इसीखे मिध्यादृष्टीके शुभोपयोगका निषेध है, केयस अशुभोपयोग ही होता है । जिसके कारण घोर पाप बांध चारोंगतियोंमें दीर्घ कालतक भ्रमण करता है। ___ तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोग त्यागने योग्य है, पाप बंधका कारण है इससे इस उपयोनसे बचना चाहिये तथा शुद्धो. पयोग मोक्षका कारण है इससे ग्रहण करना चाहिये और जत्र शुद्धोपयोग न हो सके तब अशुभोपयोगसे बचने के लिये शुभोपयोगयो हस्तादलभनजान अहणकर लेना चाहिये ।
इसमें इतना और विशेष जानना कि सम्यकी अपेक्षा नत्र सक मिथ्यात्व भावका सद्भाव है तस्तक उपयोगको अशुभोपयोग कहा जाता है क्योंकि यह मोक्षका परंपरा कारण भी नहीं है। किन्तु जब लेश्याओंकी अपेक्षा विचार किया जाय तब कृष्ण नील कापीत तीन अशुभ लेश्याओंफे साथ उपयोगो अशुभोपयोग तथा पीत पद्म शुक्ल तीन शुभ लेश्याओं के साथ उपयोगको शुभोपयोग कहते हैं । इप्त अर्थसे देखनेरो नम छहों लेश्याएं सैनी पंचेन्द्रो मिथ्यादृष्टी जीवके पाई जाती हैं तब अशुभोपयोग और शुमोपयोग दोनों उपयोग मिथ्याष्टियोंके पाए जाते हैं इसीसे जब शुमलेश्या सहित शुभोपयोग होता है तब मिथ्यादृष्टी जीव चाहे द्रव्यलिंगी श्रावक हो या मुनि, पुण्य कर्मों को भी बांधते हैं । परंतु उस पुण्यको -निरतिशय पुण्य या पापानुबंधी पुण्य कहते हैं । क्योंकि