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ANNAM
८२-7. श्रीप्रक्चनसार भापाटीका । . अनंतकालता रहता है। क्योंकि यह ज्ञान आत्माका स्वभाव है। इसी तरह मनंत अतीन्द्रिय निर्मल मुख भी · मात्माका स्वभाव है । इसको चारों ही घातिया कोने रोक रखा है । इन कमौके उदयके कारण प्रत्यक्ष निर्मल सुखका अनुभव नहीं होता है। इन चार कौमसे सर्वसे प्रवल मोहनीय कर्म है । इसमें भी मिथ्यात्य प्रकृति और अनंतानुबंधी कवाय सबसे प्रक्ल हैं। जनतक इनका उपशम या क्षय नहीं होता है तबतक सुख गुणका विपरीत परिणमन होता है अर्थात् इंद्रिय द्वारा सुख होता है ऐसा समझता है, पराधीन हल्पित सुखने सुख मानता है और निरंतर ज्यों ? इस इंद्रिय जनित सूखका भोग पाता है यो २ अधिक २. तृष्णाकी वृद्धि करता है उस तृष्णास मातुर होकर जैसे मृग धनमें भ्रमसे घासको पानी समय पीनेको बौड़ता है और अपनी प्यास बुझानेकी अपेक्षा अधिक बढ़ा लेना है
से अज्ञानी मोही नीव भ्रमसे इन्द्रिय सुखको मुख भानकर बार बार इन्द्रियके पदार्श के भोगप्रवर्तता है और अधिक २' इन्द्रिय चाहकी दाहमें जलकर दुःखी होता है। परन्तु निप्स किसी मात्माको दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी कषायका उपशम, क्षयोपशम या क्षय होकर सम्यक्त पैदा हो जाता है उसी आत्माको सम्यक्तके होते हो मात्माका अनुभव अर्थात् स्वाद माता है तत्र ही सच्चे सुखका परोक्ष अनुभव होता है, यद्यपि यह अनुभव प्रत्यक्ष केवलज्ञानकी प्रगटवा न होनेसे परोक्ष है तथापि इन्द्रिय और मनका व्यापार बन्द होनेसे तथा आत्माकी सन्मुखता आत्माकी तरफ रहने से स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहलाता है। सम्यक्त