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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
किस तरह ज्ञान और आनन्द दोसते हैं इसका उत्तर आचार्य देते हैं-
पक्खीणघादिकम्मो, अनंतवरवीरिओ अधिकतेजो जादो अदिदिओ सो, णाणं सोक्खं च परिणमदि॥ २० प्रक्षीणघातिकमी अनन्तवरवीर्योऽधिकतेजाः ।
जातोतोन्द्रियः स ज्ञानं सौख्यं च परिणमते ॥ २० ॥
सामान्यार्थ - यह आत्मा घातिया कर्मोंको नाशकर अनंत वीर्यकाघारी होता हुआ व अतिशय ज्ञान और दर्शनफे तेनको, रखता हुआ अती द्रय होकर ज्ञान और सुखरूप परिणमन करता है।
अन्य सहित विशेषार्थ - (सः) वह सर्वज्ञ आत्मा जिसका लक्षण पहले कहा है ( पक्खोणघादिकम्मः) घातिया कर्मोको क्षयकर अर्थात् अनंतज्ञान अनतदर्शन अनंतसुख अनंत इन चतुष्ट्यरूप परमात्मा द्रव्यकी भावनाफे लक्षणको रखनेवाले शुद्धोपयोग बलसे ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोंको नाशकर (अनंतचावीर्यः) अंत रहित और उत्कृष्ट वीयत्रो रखता हुआ ( अधिकतेजः ) व अतिशय तेजको धारता हुआ अर्थात् केवलज्ञान केवल - दर्शनको प्राप्त हुआ (अणिदियः) अतीन्द्रिय अर्थात इंद्रियोंके विषयोंके व्यापारसे रहित (जादो) होगया (च) तथा ऐसा होकर ( णाणं) केवलज्ञानको (सोक्खं) और अनंत सुखको (परिणमदि) परिणमन करता है । इस व्याख्यानसे यह कहा गया कि आत्मा
यद्यपि निश्वयसे अनंतज्ञान और अनंत सुखके स्वभावको रखनेवाला है तो भी व्यवहारसे संसारकी अवस्था में पड़ा हुआ जबतक
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