Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 344
________________ Niu श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३२५ अनन्तानुवन्धी सम्बन्धी जो बहुत गाढ़ होता है व निसकी वासना अनन्त कालतक चली नासती है व मो मिथ्यात्वको बुलानेवाला व मिथ्यात्वको सहायक है । इस तरहके रागद्वेषमें पड़कर ससारी जीव रातदिन विषयोंके दास बने रहते हैं, उनका प्रत्येक शरीरका सर्व समय इष्ट पदार्थोके सम्बन्ध मिलानेमें, अनिष्ट पदार्थोके सम्बन्ध हटानेमें व इण्ट पदार्थोके वियोग होनेपर दुःख करनेमें व नाना तरहके परको दुःखदाई अशुभ कर्मों के विचार व आचर, णमें बीतता है जिससे ऐसे मोही नीव दर्शनमोहके प्रभावसे रात दिन माकुलतासे पूर्ण रहते हुए कभी भी सुख शांतिके भावको नहीं पाते हैं । संसारके मूल कारण यही रागद्वेष मोह है। . इनहीसे क्षुभित जीव अनादि कालसे संसारमें जन्म मरण करता है तथा जबतक दर्शन मोहको दूर न करे तबतक बराबर चाहे अनन्तकाल होनावे जन्म मरण करता रहेगा। __ दुमरा भेद रागद्वेषका वह है जो इस जीवको विषयोंमें श्रद्धा व रुचिकी अपेक्षा मूर्छित नहीं करता है किन्तु भर्शन मोहके बल विना रुचि न होते हुए भी विषयोंको चाह पैदा करता है मिससे यह जानते हुए भी कि विषयों में सुख नहीं है ऐसी निर्बलता भावों में रहती है कि इष्ट पदार्थों में राग व अनिष्ट पदार्थों में द्वेष कर लेता है । इसकी वासना छः माससे अधिक नहीं रहती है, दर्शन मोह रहित सम्यदृष्टी जीवमें धर्ममें आन्तिक्य, जीर्वोपर करुणा, कषायोंकी मंदतासे प्रशमभाव, तथा संमारसे वैराग्यरूप संवेग भाव वर्तन करता है निससे यह नीव यथासंभव अन्यायोंसे वचनेका व परको पीडितकर अपने स्वार्थ साधनका बचाव

Loading...

Page Navigation
1 ... 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394