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श्रीपवचनसार मापाटीका ।
ही शुद्धोपयोग और उसके फनरूप सर्वज्ञ पदकी प्राप्तिका उपाय है। इसी लिये सुखके इच्छुक पुरुषको उचित है कि मरदंत सिद्ध:परमात्मा के स्वरूपका श्रृद्धान अच्छी तरह रक्खे और उनक पूजा भक्ति फरे, उनका ध्यान करे तथा उनके समान होनेकी भावना करे । प्रमत्त गुणस्थानोंमें पूज्य पूजक ध्येय ध्याताका विकरूप नहीं मिटता है इसलिये छठे गुणस्थानतक भक्तिका प्रवाह चलता है । यद्यपि सच्चे श्रद्धान सहित यह भक्ति शुभोपयोग है तथापि शुद्धोपयोग के लिये कारण है। क्योंकि सर्वज्ञ भगवानकी व उनकी भक्तिकी श्रृद्धा में विपरीताभिनिवेश का अभाव है अर्थात सर्वज्ञ व उनकी भक्तिकी श्रृद्धा इसी भावपर आलम्बन रखती है कि शुद्धोपयोग प्राप्त करना चाहिये । शुद्धोपयोग ही उपादेष है। क्योंकि यही वर्तमान में भी अतीन्द्रिय आनन्दका कारक है तथा भविष्य भी सिद्ध स्वभावको प्रगट करनेवाला है। इसलिये हरएक धर्मधारीको रागी द्वेषी मोही सर्व आप्तों या देवोंको त्यागकर एक मात्र सर्वज्ञ बोतगग हितोपदेशी अरहंत में तथा परम निरंजन शुद्ध परमात्मा सिद्ध भगवान में ही श्रद्धा रखकर हरएक मंगलीक कार्य में इनका पूजन भजन करना चाहिये ।
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इस तरद निर्दोष परमात्मा के श्रद्धानसे मोक्ष होती है ऐसा कहते हुए तीसरे स्थळमें गाथा पूर्ण हुई ।
उत्थानका - मागे शिपने न किया कि इस आत्माके विकार रहित स्वसंवेदन लक्षणरूप शुद्धोपयोगके प्रभावसे सर्वज्ञपना प्राप्त होनेपर इन्द्रियोंके द्वारा उपयोग तथा भोगके बिना