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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१०३ व्यापक मात्माको न माने, केवल एक बिन्दुमात्र माने तो जहां वह बिंदुमात्र होगा वहींका सुख दुःख मालूम पड़ेगा-सर्व शरीरके सर्व ठिकानोंका नहीं यह बात भी प्रत्यक्षसे विरुद्ध है। यदि शरीरमें एक ही साथ पगमें मस्तकों व पेटमें सुई भोकी जावे तो वह एक साथ तीनों दुःखोंको वेदन करेगा-अथवा मुंखसे स्वाद लेते, आंखसे देखते व विषयभोग करते सर्वांग वेदन होता है, कारण यही है कि आत्मा अखंड रूपसे सर्व शरीरमें व्यापक है । शरीरके किसी एक स्थानपर सुख भासनेसे सर्व अंग प्रफुडित हो जाता है। शरीरमें मात्मा संकुचित अवस्थामें है उसके असं. ख्यात प्रदेश कम व बढ़ नहीं होते। यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञानादि अनंत गुणोंका निवास आत्माके असंख्यात प्रदेश ही हैं तथापि उसके गुण अपने २ कार्यमें स्वतंत्रतासे काम करते हैं, उन्हीं में ज्ञान गुण सर्व ज्ञेयोंको जानता है-और जब ज्ञेय लोकालोक हैं तब ज्ञान विषयकी अपेक्षा व्यवहारसे लोकालोक प्रमाण है ऐसा यहां तात्पर्य है । ऐसी अपूर्व ज्ञानकी शक्तिको पहचानकर हमारा यह कर्तव्य होना चाहिये कि इस केवलज्ञानकी प्रगटताके लिये हम शुद्धोपयोगका अनुभव करें तथा उसीकी भावना करें ॥२३
उत्थानिका-अब जो आत्माको ज्ञानके बराबर नहीं मानते हैं, ज्ञानसे कमती बढ़ती मानते हैं उनको दूषण देते हुए कहते हैंणाणप्पमाणमादाण हबाद जस्लेह तस्स सो आदा! हीणो वा अधियो वा,णाणादो हवदिधुवमेव ॥२४॥