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'श्रीमवचनसार भाषाका! [८९ माहार विग्रह गतिके भीतर काँका ग्रहण या कार्माण वर्गणाका माहार होते हुए भी एक, दो या तीन समय तक नहीं होता है। इसलिये ऐमा माना जाता है कि भागममें नोकर्म माहा• रकी अपेक्षासे माहारक अनाहारकपना कहा है। यदि कहोगे कि कवलाहारकी अपेक्षासे है लोग्रामरूप भोजनके कालको छोड़कर सदा ही अनाहारकपना ही रहेगा तब तीन समय मनाहारक हैं • ऐसा नियम न रहेगा । यदि कहोगे कि वर्तमानके मनुष्योंकी तरह केवलियोंके कवलाहार है क्योकि केवली भी मनुष्य हैं सो कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानोंगे तो वर्तमानके मनुष्योंकी तरह पूर्वकालके पुरुपोंके सर्वज्ञपना न रहेगा तथा राम रावण आदिको विशेष सामर्थ्य थी सो बात नहीं रहेगी सो यह बात नहीं बन सक्ती । और भी समझना चाहिये कि मल्पज्ञानी छमस्थ प्रमत्तसंयतनामा छठे गुणस्थानघारी साधु भी जिनके सात धातु रहित परम औदारिक शरीर नहीं है इस वचनसे कि " छटोति पढम मण्णा" प्रथम महारकी संज्ञा अर्थात् भोजन करनेकी चाह छठे गुणस्थान तक ही है यद्यपि वे आाहारको लेते हैं तथापि ज्ञान और संयम तथा ध्यानकी सिद्धि के अर्थ लेते हैं देहके मोहके लिये नहीं लेते हैं । कहा भी है
कायस्थि व्यर्थमाहारः कायो ज्ञानार्थमिप्यते, जानं कर्मविनाशाय तन्मायो परमं सुखं ॥१॥ ण चलाउ साहणटुंण सरीरस्स य चपट तेजहूँ । णाणटं संजमदं झाण8 चेव भुंगति ॥ २ ॥