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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । [20
भाव यह है कि आहार छः प्रकारका होता है जैसे नो कर्मा आहार, कमका आहार, ग्रासरूप कबलाहार, लेपका आहार, ओज आहार, तथा मानसिक आहार । आहार उनं परं - माणुओं के ग्रहणको कहते हैं जिनसे शरीरकी स्थिति रहे आहारक वर्गणाका शरीरमें प्रवेश सो नोकपका आहार है । जिन परमाणुओंके समूहसे देवोंका, नारकियोंका, मनुष्य या तिर्थचोंका वैक्रियिक, औदारिक शरीर और मुनियोंके आहारक शरीर बनता है उसको आहारक वर्गणा कहते हैं । कार्माण वर्गणाके ग्रहणको कम्मे आहार कहते हैं । इन्हीं वर्गणाओंसे कर्मो का सूक्ष्म शरीर बनता है । अन्नपानी आदि पदार्थोंको मुखद्वारा चबाकर व मुंह चलाकर खाना पीना सो कवळाहार है । यह साधारण मनुष्योंके व द्वेन्द्रियसे ले पचेन्द्रिय तक्के . पशुओंके होता है । स्पर्शसे शरीर पुष्टिकारक पदार्थोंको ग्रहण करना सो लेप आहार है । यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति कायधारी एकेन्द्रिय जीवोंके होता है। अंडोंको माता खेती है उससे जो गर्मी पहुंचाकर अंड़ोंको बड़ा करती है सो ओज आहार है । भवनवासी, व्यंतर, नोतिषी तथा कल्पवासी इन चार प्रकारके देवोंमें मानसिक आहार होता है । इनके चेक्रियिक सूक्ष्म शरीर होता है जिसमें हाड़ मांस रुषिर नहीं होता है इसलिये इनके कवलाहार नहीं है यह मांस व अन्न नहीं खाते हैं। देवोंके जब कभी भूखकी बाधा होती हैं उनके कंठमेंसे ही अमृतमई रस झड़नाता है उसीसे ही उनकी भूखी बाधा मिट जाती है । नारकियोंके कर्मो का भोगना यही आहार है तथा वे नरककी पृथ्वी