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श्रीमवचनसार भापाटीकर। . [४३. होते ही सच्चे मुखका स्वाद थाने लगता है। फिर नितना जितना ज्ञान बढ़ता जाता है तथा कषाय मंद होता जाता है उतना उतना अधिक निर्मल और अधिक काळतक सच्चे मुखका स्वाद
आता है। केवलज्ञान होनेपर पूर्ण शुद्ध प्रत्यक्ष और अनंत सच्चे सुखका लाभ हो जाता है क्योंकि यह स्वाभाविक अतीन्द्रिय सुख. है, जो कर्मोके भावरणसे ढका था अब भावरण मिट गया इससे पूर्णपने प्रगट हो गया। अंतरायके अमावसे अनंत बल मात्मामें पैदा हो जाता है इसी कारण अनंतज्ञान व अनंत सुख सदाकाक अपनी पूर्ण शक्तिको लिये हुए विराजमान रहते हैं । इस तरह माचार्यने शिष्यकी शंका निवारण करते हुए बता दिया कि नित इन्द्रियमनित ज्ञान व सुखसे संसारी रागी जीव अपनेको ज्ञानी
और सुखी मान रहे हैं वह ज्ञान व सुख न वास्तविक निर्मळ स्पष्ट ज्ञान है न सच्चा सुख है। सच्चा स्वाभाविक स्पष्ट ज्ञान और सुख तो आईत और सिद्ध परमात्माको हो होता है जिप्तको उत्पत्तिका कारण शुद्धोपयोग या साम्यभाव है जिसके आश्रय करनेकी सूचना आचार्यने पहले ही की थी इसलिये सर्व रागडेप मोहसे उपयोग हटाकर शुद्धोपयोगकी ही भावना करनी चाहिये कि मेरा स्वभाव निश्चयसे अनन्तज्ञानादि चतुष्टय रूप है ऐसा तात्पर्य है।
___ • उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अतींद्रियपना होनेसे ही केवलज्ञानीके शरीरके माधारसे उत्पन्न होनेवाला भोमनादिका मुख तथा क्षुधा आदिका दुःख नहीं होता है।