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श्रीमानसार भापीका ९ उस पुण्यके उदयसे इन्द्रादि महापदवी धारक नहीं होते हैं। तथा पुण्यको भोगते हुए बुद्धि पापोंमें झुक जासक्ती है जिससे फिर नई नियोदमें चले जाते हैं। इसलिये मिथ्यात्वीका शुमो पयोग व उसका फल दोनों ही सराहनीय नहीं हैं।
इसीसे यही भाव समझना चाहिये कि मिस बरहसे हो तत्वज्ञान द्वारा सम्वतकी प्राप्ति करनी योग्य है। १२॥
इस तरह तीन तरह के उपयोगकै फलको कहते हुए चौथे स्थलमें दो गाथाएं पूर्ण हुई।
उस्थानिशा मागे आचाप शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनोंको निश्चय नयमे त्यागने योग्य मानकरके शुद्धोपयोगके अधिकारको प्रारंभ करते हुए तथा शुद्ध आत्माकी भावनाको स्वीकार . करते हुए अपने स्वभावमें रहने के इच्छुक जीवके उताह बढानेके लिये शुद्धोपयोगका फराश करते हैं । अथवा दूसरी पातनिका या सुचना यह है कि यपि आये आचार्य शुद्धोपयोगका फक ज्ञान और मुख संक्षेन या विचारसे कहगे तथापि यहां भी इप्स पीठिका पित करते हैं अपधा तोपरी पानिका यह है कि पहले शुद्धोपयोगका फल निर्वाण बताया था अब यहां निर्वाणका फल अनंत सुख होता है ऐसा कहते हैं। इस तरह तीन पातनिकाओं के भावको मनमें धरकर आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं--- अइलघमास पिसवातीद अणावममणत । अव्युच्छिण्णं च सुई सुद्धपोसिडाणं ॥ १३ ॥ - अतिशयनालसर विषयातीतमनौपम्यमनन्तन् । - अन्युछिच तुखं शुद्ध पयगतसिद्धानाम् ॥ १३ ॥