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श्रीमदचनसार भावाटीका ।
षट् कारकसे स्वयं हा परिणमन करता हुआ यह आत्मा परमात्म स्वभाव तथा केवल ज्ञानकी उत्पत्ति में भिन्नकारककी अपेक्षा नहीं रखता है इसलिये आप ही स्वयंभू कहलाता है ।
भावार्थ - इस गाथा में आचार्यंने यह दिखलाया है कि अर्हत परमात्माको स्वयंभू क्यों कहते हैं। यही शुद्धोपयोगमें परिगमता हुआ आत्मा आपहीसे अपने भावको अपने लिये आपसे आपमें ही समर्पण करता है । षट् कारकों का विकल्प कार्योंमें हुआ करता है । इस विकल्पके दो भेद हैं-अभिन्न षटकारक और भिन्न षट्कारक | भिन्नकारकका दृष्टान्त यह है कि जैसे किसानने rपने भंडारसे चीजोंको लेकर अपने खेतमें धन प्राप्तिके लिये अपने हाथोंसे बोया । यहां किसान कर्ता है, बीज कर्म है, हाथ करण हैं, धन संपदान है, भंडार अपादान है, खेत अधिकरण है । इस तरह यहां छहों कारक भित्र २ हैं । आत्माकी शुद्ध अवस्थाकी प्राप्ति के लिये अभिन्न कारककी आवश्यक्ता है । निश्चय नयंसे हरएक वस्तुके परिणमन में जो परिणाम पैदा होता है उसमें ही अभिन्न कारक सिद्ध होते हैं। जैसे सुवर्णकी डलीसे एक कुंडल बना | यहां कुंडल रूप परिणामका उपादान कारण सुवर्ण है । भिन्न छः कारक इस तरह कहे नासक्ते हैं कि सुवर्ण कर्ताने कुंडल कर्मको अपने ही सुवर्णपने के द्वारा ( करण कारक ) अपने ही कुन्डलभाव रूप शोभाके लिये ( संप्रदान अपने ही सुवर्ण धातुसे (अपादान) अपने ही सुवर्णपने में (अधिकरण ) पैदा किया | यह अभिन्न षट्कारकका दृष्टांत है। ईसी सरह 'जात्म ध्यान करनेवाला सम्पूर्ण पर द्रव्योंसे अपना विकल्प
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