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श्रीमवचनसार. भाषाटीका। . [६७ हटा लेता है, केवल अपने ही आत्माके सन्मुख उपयुक्त होनेकी
चेष्टा करता है । स्वानुभव रूप एकाग्रताके पूर्व आत्माकी भावनाके समयमें यह विचारवान प्राणी अपने ही आपमें षटकारकका विकल्प इस तरह करता है कि मैं अपनी परिणतिका भाप ही कर्ता हूं, मेरी परिणति जो उत्पन्न हुई है सो ही मेरा कर्म है। अपने ही उपादान कारणसे अपनी परिणति हुई है इससे मैं आप ही अपना करण हूं। मैंने अपनी परिणतिको उत्पन्न करके अपने आपको ही दी है इससे मैं भापही सम्प्रदान रूप हं। अपनी परिणतिको मैंने कहीं औरसे नहीं लिया है किंतु अपने आत्मासे ही लिया है इस लिये मैं भाप ही अपादान रूप हूं। अपनी परिणतिको मैं अपने आपमें ही धारण करता हूं इसलिये मैं स्वयं अधिकरण रूप हूं। इस तरह अभेद षट्कारकका विकल्प करता हुमा ज्ञानी जीव अपने भात्माके स्वरूपकी भावना करता है । इस भावनाको करते करते ना आप भापमें स्थिर हो जाता है तब अभेद षट् कारकका विकल्प भी मिट जाता है । इस निर्विकल्प रूप शुद्ध भावके प्रतापसे यह आत्मा आप ही चार घातिया कोसे अलग हो परहंत परमात्मा हो जाता है इसलिये अरहंत महाराजको. स्वयंभू कहना ठीक है।
इस कथनसे भाचार्यने यह भाव भी झलझाया है कि यदि तुम स्वाधीन, सुखी तथा शुद्ध होना चाहते हो तो अपने आप पुरुषार्थ करो। कोई दूसरा तुमको शुद्ध बना नहीं सक्ता है। मुक्तिका देनेवाला कोई नहीं है । तथा मोक्ष.या शुद्ध भवस्था मांगनेसे नहीं मिलती है, न भक्ति पूनन करनेसे प्राप्त होती है।