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श्रीमपचनसार भोपाटीका! [५७. कहा जाता है । इसीलिये आमममें शुद्धोपयोग सातवें अधमत गुणस्थानसे कहा गया है । सातवें गुणस्थानसे नीचे भी चौथे गुणस्थान आदि धारकों के भी कुछ अंश शुद्धोपयोग होजाता है परन्तु वहां शुभोपयोग अधिक होता है इसीसे शुद्धोपयोग न कह कर शुभोपयोग कहा है। .
यहां आचार्यकी यही सूचना है कि निर्वाणके अनुपम मुखका कारण शुद्धोपयोग है । इसलिये परम सुखी होनेवाले मात्माको अशुभोपयोग व शुभोपयोगमें न रंगकर मात्र शुद्धोपयोगकी माप्तिका उद्यम करना चाहिये । यदि संयम धारनेकी शक्ति हो तो मुनिपदमें आकर विशेष उद्यम करना योग्य है-मुमिपदके 'बाहरी भाचरणको निमित्तकारण मात्र मानकर अंतरंग स्वरूपाचरणमा ही लाभ करना योग्य है। बाहरी भाचरणके विकल्पमें ही अपने समयको न खोदेना चाहिये । नो मुनिका संयम नहीं 'पालसते वे एक देश संयमको पालने हुए भी शुद्धोपयोभकी भावना करते हैं तथा अनुभव दशामें इस स्वात्मानुभव रूप शुद्धोपयोगका स्वरूप वेदकर सुखी रहते हैं। भाव यह है कि जिस तरह हो शुद्धोपयोग व उसके घरो महा पुरुषों को ही उपादेय मानना चाहिये। ____ इस तरह शुद्धोपयोगका फल भो अनंत सुख है उसके पाने योग्य शुद्धोपयोगमें परिणमन करनेवाले पुरुषका कथन करते हुए यांचवे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई।
त्यानिका-इस प्रक्चनसारकी व्याख्या में मध्यम रुचि धारी शिष्यको समझाने के लिये मुख्य तथा गौण रूमसे
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